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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘पूछ लूँगी। इस पर भी माँजी! मैं आपके लड़के का अधिकार नहीं मानती कि वे मुझको वहाँ जाने से रोक सकें। उन्होंने मेरा त्याग कर रखा है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मैं उनके लिये सन्तान नहीं दे सकी न!’’
‘‘इसमें तुम्हारा क्या दोष है?’’
‘‘किसका दोष है, कौन जानता है? इस पर भी माँजी! वस्तुस्थिति यह है कि आज सात वर्ष हो गये हैं। उन्होंने मेरा अंग स्पर्श तक नहीं किया। वे खाने की रोटी देते हैं। यह तो घर पर पल रहे कुत्ते-बिल्लियों को भी मिल जाती है।’’
‘‘इस कैद में मेरी आत्मा तड़फड़ा रही है।’’
‘‘अपने पति से बात कर लेना।’’ इतना पद्मा ने कह तो दिया, परन्तु आगे कुछ न कह सकी। उसका कंठ आँसुओं से अवरुद्ध हो गया था।
साधना ने उर्मिला का समर्थन कर दिया। उसने कहा–‘‘यदि पिताजी कहेंगे तो मैं सीतापुर चली जाऊँगी।’’ पद्मा के लिये अपने बिस्तर में जाकर रोने के अतिरिक्त कोई और अन्य चारा नहीं रहा था।
अगले दिन साधना और उर्मिला, रमेशचन्द्र सिन्हा की कोठी का पता पूछ, वहाँ जा पहुँचीं। रजनी की बिदाई हो रही थी। वहाँ बाजे-गाजे और डोली जाने का प्रबन्ध देख वे खड़ी रह गयीं। इन्द्र ने उनको देखा तो भागा हुआ आया। उन दोनों के चरण छूकर सामने खड़ा हुआ आँसू बहाने लगा।
साधना ने आँसू बहाते हुए इन्द्र की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘दीदी आयी है क्या?’’
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