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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इस सब समाचार को सुन सौभाग्यवती रो रही थी। साधना ने इस दुःखद वातावरण को शीघ्र समाप्त करने के लिये कह दिया, ‘‘कल इन्द्र का पत्र, कि वह विलायत जा रहा है, मिला था। हमने यही निश्चय किया था कि हम इन्द्र के जाने से पूर्व उससे मिलने जायेंगी। हमने अपने पिताजी को तो बताया नहीं, अपने-अपने घर वालों की स्वीकृति से आयी हैं। मुझको कुछ ऐसा समय आया है कि महावीर आपको स्टेशन पर मिलने आयेगा।’’
इसके बाद इन्द्र की आर्थिक अवस्था पर बातचीत होने लग पड़ी। इन्द्र ने बता दिया, ‘‘मुझको छः मास की छात्रवृत्ति तुरन्त मिल गयी है। जाने-आने का भाड़ा अतिरिक्त मिलेगा, परन्तु उसका तो बिल भेजना पड़ेगा।’’
इसी वार्तालाप में सायंकाल के सात बज गये थे। इन्द्र अपना सामान बाँध चुका था।
सब लोग स्टेशन पर पहुँचे तो उनके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने प्लेटफॉर्म पर महावीर को अपने माता-पिता के साथ खड़े देखा। इन्द्र ने आगे बढ़कर अपने नाना और नानी के चरण-स्पर्श किये तो पद्मा ने उसके सिर पर प्यार देकर कह दिया, ‘‘इन्द्र! कब तक लौटोगे?’’
‘‘नानीजी! दो वर्ष तो लगेंगे ही।’’
‘‘अच्छा। अपना सुख-समाचार अवश्य भेजते रहना।’’
सैकण्ड क्लास में सीट रिजर्व थी। अतः इन्द्र को बिठाने के लिये सब उसके डिब्बे के बाहर खड़े थे। शिवदत्त, बिना किसी से बोले-चाले वहाँ खड़ा था। सौभाग्यवती ने भी नमस्ते कही तो उसने उत्तर नहीं दिया था। सौभाग्यवती अपनी माँ से मिली तो उसने पीठ पर हाथ फेर दिया।
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