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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
उर्मिला अपने पति के पास खड़ी पूछ रही थी, ‘‘पिताजी कैसे आ गये हैं?’’
‘‘मालूम नहीं क्या हुआ है? आज सायंकाल जब दफ्तर से लौटे तो नित्य से अधिक शान्त और प्रसन्न प्रतीत होते थे। मैं स्टेशन पर आने के लिये तैयार हो रहा था। माँ भी तैयार थी। पिताजी ने पूछा, ‘किधर जा रहे हो, महावीर?’
‘चार बाग स्टेशन तक।’ मैंने कहा।
‘क्या है वहाँ?’
‘एक सम्बन्धी विलायत जा रहा है। उसको ‘सैंड आफ’ करने।’
‘तुम्हारी माँ भी जा रही है क्या?’
‘पता नहीं, पूछता हूँ।’
‘जा रही है। एक ताँगा मँगवा लो। मैं भी चलूँगा।’
‘‘मुझको विस्मय तो हुआ, पर मैंने आश्चर्य प्रकट करने का साहस नहीं किया। मैं चुपचाप ताँगा लेने चला गया। जब ताँगा लेकर आया तो माताजी और पिताजी घर के द्वार को ताला लगा बाहर ही खड़े थे। मैंने पूछा नहीं कि वे कहाँ जा रहे हैं और किसको विदा करने जा रहे हैं। वे ताँगे में बैठे तो मैंने ताँगे वाले को चार बाग स्टेशन चलने को कह दिया। हम यहाँ आ पहुँचे। मुझको तो ऐसा प्रतीत होता है कि माता जी ने पिताजी को मना लिया है।’’
जब सब लोग स्टेशन के प्लेटफार्म पर गाड़ी के जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे तब साधना सौभाग्यवती से पूछ रही थी, ‘‘दीदी! राधा के विषय में क्या विचार किया है?’’
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