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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
कलावती ने बहुत ध्यान से रजनी की ओर देखा और कहा, ‘‘आपका तो विवाह हो चुका है?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘परन्तु आप तो कुँवारी लड़कियों की भाँति वेशभूषा में हैं। हाथ में दो चूड़ियाँ भी नहीं पहनीं?’’
‘‘डॉक्टर! आजकल श्रृंगार-सामग्री की दुकानों पर कुमारियों ने भीड़ लगा रखी है। हम विवाहिता तो वहाँ खड़े होने को भी स्थान नहीं पातीं।’’
‘‘कलावती हँस पड़ी। हँसकर पूछने लगी, ‘‘किस दुकान पर आपको सामान नहीं मिलना?’’
‘‘हजरतगंज की किसी भी दुकान पर चली जाइये। वहाँ कुमारियों की भीड़ ही लगी देखेंगी।’’
‘‘खैर, छोड़िये इस बात को। देखिये! मैं आपको एक गुर की बात बताती हूँ। बिना जेब में पैसा लिये किसी दुकान से कुछ मिलेगा नहीं। आपकी तरह कोई भी दुकानजार केवल धन्यवाद से कुछ देने का तैयार नहीं होगा। इस कारण उनसे ही पाठ सीख लो और निःशुल्क चिकित्सा का विचार छोड़ दो।’’
‘‘परन्तु मैंने दुकान नहीं खोली। मैं किसी भी वस्तु की बिक्री नहीं करती। मैंने तो धर्मार्थ प्याऊ लगाई है। निर्धन लोग, जो होटलों और शर्बत की दुकानों पर एक गिलास शर्बत के लिये चार-पाँच आने नहीं दे सकते, ‘‘उनको बिना मूल्य जल पिलाने का प्रबन्ध किया है।’’
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