लोगों की राय

उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

410 पाठक हैं

संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘यह भी मेरे अपने लिये है, मेरी आत्मा के सन्तोष के लिए है। यदि इससे दूसरों को कुछ भी लाभ पहुँचता है तो वह भी साधन है मेरी अपनी आत्मा की तृप्ति का। मुझको मान-अपमान की चिन्ता नहीं। जब तक मैं संतुष्ट हूँ, मैं दूसरों की अपने विषय में सम्मति की कुछ भी कीमत नहीं मानतीं।’’

‘‘आप कुछ मूर्ख हैं।’’

रजनी हँसती रही। उसने बात बदलने के लिए कह दिया, ‘‘मैं समझती हूँ कि आपने विवाह नहीं किया?’’

‘‘नहीं किया।’’ फिर कुछ विचारकर बोली, ‘‘नहीं हुआ। मैंने एक-दो स्थानों पर यत्न किया था परन्तु सफलता नहीं मिली।’’

‘‘क्यों? क्या आपके माता-पिता नहीं थे?’’

‘‘थे, परन्तु हमारे समुदाय में माता-पिता...’’ वह कहती-कहती रुक गयी। कुछ काल तक गम्भीर विचार में मग्न हो बोली, ‘‘मैं अब चालीस वर्ष की आयु से ऊपर हूँ। इस कारण बचपन की बातें स्मरण नहीं रहीं। मैं बैंगलूर की रहने वाली हूँ। वहाँ के एक ईसाई परिवार में पैदा हुई और पूना के लड़कियों के कॉलेज में पढ़ी। पश्चात् मद्रास मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर बनी। मेरे माता-पिता ने एक ईसाई लड़के से, जो मैसूर रियासत में एक स्कूल का मास्टर था, मेरे विवाह का प्रबन्ध किया था। परन्तु मैं अपने मेडिकल कॉलेज के एक सहपाठी से विवाह करना चाहती थी। वह यहाँ बलरामपुर हस्पताल में नौकर होकर आया तो मैं भी उसके पीछे-पीछे यहाँ आकर अपना चिकित्सालय खोल बैठी। वह मिस्टर कुछ साल मुझसे लारे-लप्पे लगाते रहे। फिर एकाएक उसने एक ब्राह्मण लड़की से विवाह कर लिया। आजकल वह कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के हस्पताल में चीफ सर्जन लगा हुआ है। मैं यहाँ चिकित्सा करती ही रह गयी।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book