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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘मैं आपको हिन्दू समझी थी।’’
‘‘नहीं। मैं...वास्तव में कुछ भी नहीं हूँ। अब मेरी आय लगभग तीन-चार हजार रुपये प्रतिमाह है। मेरा बैंक-बैलेंस एक लाख से ऊपर है। मेरी कोठी पर चालीस हजार रुपया खर्च हुआ है। उसमें फर्नीचर लगभग बीस हजार का है। मैं खूब मजे में हूँ। केवल अकेली हूँ। अब तो मेरा विवाह होता प्रतीत नहीं होता।’’
‘‘तो उस मिस्टर के पश्चात् अन्य कोई आपको नहीं मिला?’’
‘‘मिले हैं, मगर पसन्द नहीं आये। एक पादरी मुझसे सम्बन्ध बनाने के लिए यत्न कर रहा है, मगर विवाह के लिये नहीं।’’
‘‘देखो डॉक्टर! मेरा कहा मानो। अपनी आय में कुछ हिस्सा निर्धनों के लिये भी रखो, अन्यथा मरने के पश्चात् यह सब किसके लिये होगा?’’
‘‘मैं इस प्रकार बाँट गयी तो नाम नहीं होगा। मैं विचार कर रही हूँ कि दो-ढ़ाई लाख हो जाये तो एक ट्रस्ट बना दूँ। अपने नाम पर–‘कलावती मिड-वाइफरी सैण्टर।’ इस प्रकार मेरा नाम स्थायी हो जायेगा। छुटपुट धन बाँटने और अपनी शक्ति का व्यय करने से क्या होगा? पाने के एक-दो मास पश्चात् ही लोग भूल जाते हैं।’’
रजनी हँस पड़ी। हँसकर उसने कहा, ‘‘तो आप दान-दक्षिणा भी नाम कमाने के लिये करना चाहती हैं। कितना-व्यर्थ जीवन है! पहले नाम कमाने के लिये धन कमाती हैं, फिर नाम कमाने के लिये दान करना चाहती हैं। नाम के अतिरिक्त भी कुछ हो अथवा नहीं?’’
‘‘नाम के अतिरिक्त यह शरीर है। खाता-पहनता है। मकान इसके रहने के लिये है और बस। शरीर का भाग शरीर को मिल रहा है। शेष तो नाम ही रहेगा। उसके लिये कुछ कर दूँगी।’’
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