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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘मरने के बाद भी तो शरीर होगा। उस...।’’ रजनी कहती-कहती रुक गयी। चन्दू आया और बोला, ‘‘कोई साहब मिलने के लिये आये हैं।’’

‘‘आने दो।’’ रजनी ने समझा कि उसके पति का कोई मरीज होगा। वह विस्मय में देखती रह गयी, जब उसने देखा कि मिस्टर बैस्टन, टिमोथी के पति हैं।

दो नौकर एक बड़ा-सा टोकरा फलों से लदा हुआ लिये हुए भीतर आये। उन्होने टोकरा ड्राइंग-रूम के भीतर रख दिया। टोकरे के ऊपर एक बड़ा रेशमी रूमाल था। मिस्टर बैस्टन ने वह रूमाल उठाया और कहा, ‘‘मैं को आपको फीस देना तो आपका अपमान करता समझता हूँ। टिमोथी ने भेंट के रूप में ये कुछ फल भेजे हैं। आपको इन्कार करने का अधिकार नहीं।’’

रजनी के लिये ऐसी भेंट प्राप्त करने का पहला अवसर था। वह मन में विचार कर रही थी कि इन्कार कर दें, परन्तु फिर सोचती थी कि इसमें कुछ नकद तो है नहीं। बीस-तीस के फल थे, एक चाँदी की तश्तरी थी और उसमें एक रेशमी साड़ी और जम्पर था।

रजनी ने यह सब देखा तो कह दिया, ‘‘मिस्टर बैस्टन! मैंने प्रण किया हुआ है कि डॉक्टरी कार्य से आय नहीं करूँगी। यह सब मैं स्वीकार नहीं कर सकती।’’

बैस्टन ने बैठते हुए कहा, ‘‘देखिये रजनी देवी! यह फीस अथवा किसी सेवा का प्रतिकार नहीं है। फीस तो मैंने डॉक्टर कलावती को दी है। इनका दो मास का बिल तीन सौ रुपये बना था। सो मैंने आज इनको दे दिये हैं। आपने तो कोई बिल नहीं दिया। इस कारण यह किसी बिल की पेमेंट के रूप से नहीं है। आपने टिमोथी की बहुत सहायता की है। किसी प्रतिकार की भावना से सहायता आपने नहीं की थी, प्रत्युत्त एक बहन को कष्ट में देखकर।’

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