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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘अब देखिये। आपकी उस बहन के पति की भी तो आप बहन ही हुई। इस कारण एक भाई की ओर से अपने घर का लड़का होने की खुशी में, अपनी बहन को यह भेंट है। बहन को भाई की भेंट स्वीकार करने से इन्कार नहीं करना चाहिये।’’
‘‘परन्तु यह तो बहुत ही अधिक है?’’
‘‘आप क्या समझती हैं कि मैं यह कहीं से उधार लेकर आया हूँ? मेरे पास इतना है। भगवान् ने मुझको दिया है और मैं अपनी बहन को यह दे रहा हूँ।’’
कुछ देर चुप रहने के बाद मिस्टर बैस्टन ने कह दिया, ‘‘मेरी बहन जो कलकत्ता से आयी है, उसको भी मैं इतना ही दे रहा हूँ।’’
रजनी चुप रही तो बैस्टन ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और चला गया। कलावती अभी भी ललचायी दृष्टि से भेंट में आयी हुई सामग्री देख रही थी।
एकाएक वह उठी और साड़ी को खोलकर देखने लगी। मन-ही-मन वह अनुमान लगाने लगी कि कितने मूल्य की वस्तु होगी। अपने मन में हिसाब लगाकर उसने पुनः साड़ी को लपेटकर रखते हुए कहा ‘‘यह खूब रही! जिसने सात महीने भर मेहनत की उसको तो तीन सौ बीस रुपये और जिसने एक टॉनिक नुस्खा लिख दिया उसको फल, वस्त्र और यह चाँदी की तश्तरी! यह तो दान-धर्म के नाम पर लूट है।’’
रजनी, जो अभी बैस्टन की बातों पर विचार कर रही थी, यह सुनकर हँस पड़ी। हँसकर उसने कह दिया, ‘‘ठीक तो है–बिन माँगे मोती मिलें, माँगे मिले न भीख।’’
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