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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
कलावती को घृणा हो रही थी, बैस्टन पर, रजनी पर और अपने पर भी। इस पर भी वह अपनी घृणा को प्रकट करने के लिये शब्द नहीं पा रही थी। उसने हाथ की कलाई पर बँधी घड़ी देखी और कह दिया, ‘‘बहुत समय हो गया है। अब मुझको चलना चाहिये।’’
वह गयी तो रजनी विचार करने लगी कि ऐसी औरत डॉक्टर कैसे बन सकी है। इसको न तो युक्ति करनी आती है और न ही इसको काले अथवा सफेद का ही ज्ञान है। एक बार उसने मिश्रजी से डॉक्टरों की ओर से वैद्यों के तिरस्कार की बात कहीं तो मिश्रजी ने सहज भाव से कह दिया, ‘‘यह डॉक्टरों का दोष नहीं। वे बेचारे तो युक्ति करना नहीं जानते। उनके मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने के लिये तर्क-शास्त्र का पढ़ना अनिवार्य नहीं है। आयुर्वेद पढ़ने के लिए दर्शन-शास्त्र का ज्ञान अनिवार्य है। अतः जहाँ एक वैद्य बुद्धि से कार्य लेता है, वहां एक डॉक्टर केवल कॉलेज में सीखी हुई बातों का ही प्रयोग कर सकता है। वह किसी भी बात में दोष अथवा गुण का परीक्षण नहीं कर सकता।’’
रजनी ने उस समय तो मिश्रजी की बात की ओर ध्यान नहीं दिया था, परन्तु आज कलावती की बातें सुन उसको वैद्य जी की बात में सार प्रतीत होने लगा था।
उसी सायंकाल जब प्रोफेसर आनन्द आये तो चाय के समय कलावती की बात शुरू हो गयी। आनन्द ने कह दिया, ‘‘यह पागल औरत तुमको कहाँ मिल गयी थीं?’’
रजनी ने सब बता दिया और पूछ लिया, ‘‘क्या यह सत्य है कि इसकी चिकित्सा खूब चलती है?’’
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