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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘हाँ। सुना है कि इस समय वह नगर में प्रमुख चिकित्सकों में गिनी जाती है।’’
‘‘उसको तो बात करने का ढंग भी नहीं आता। धन के लोभ में वह पागल-सी प्रतीत होती है।’’
उनका राज्य-मूर्खों के लिए ही स्थान बना रहा है। एक डॉक्टर सेन है। वह केवल एल० एम० एस० है, परन्तु आज उसकी तीन-चार हजार की प्रैक्टिस है। उसके नुस्खों को देखो तो पता चलेगा कि वह पन्द्रह से अधिक दवाइयों के नाम भी नहीं जानता। वह घर जाकर रोगी देखने की पाँच रुपये फीस लेता है। पन्द्रह-बीस रोगी नित्य देख आता है।
‘‘इसके विपरीत हैं मिश्रजी, जिनको तुम कभी-कभी साथ ले जाया करती हो। वे आयुर्वेदाचार्य हैं। संस्कृत और आयुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान हैं। दर्शन-शास्त्र और पदार्थ-विज्ञान उनकी उँगलियों पर हैं। इस पर भी बेचारे मोटर तो क्या अपने घर का ताँगा भी नहीं रख सकते। कारण स्पष्ट है। राज्य का प्रोत्साहन डॉक्टर सेन को है, मिश्रजी को नहीं।’’
इस सबका परिणाम यह हुआ कि रजनी कि दर्शन-शास्त्र पढ़ने में रुचि उत्पन्न होने गयी। उसने एक दिन मिश्रजी से बात की तो वह स्वयं पढ़ाने के लिये तैयार हो गये।
वे कहने लगे, ‘‘रजनी बेटा! दर्शन-शास्त्र का संबंध युक्ति और बुद्धि से अधिक है। पहले बुद्धि को ही समझना होगा। बुद्धि प्रकृति के एक अति सूक्ष्म तत्त्व (महातत्त्व) से बनती है। प्रकृति के इस सूक्ष्म तत्त्व के प्रयोग के लिये मन से विकार दूर होने चाहिये। मन के विकार हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। इनसे युक्त होकर यदि तुम बुद्धि का प्रयोग करो तो दर्शन-शास्त्र को समझ सकोगी।
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