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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘जैसे बहुत ही बढ़िया और ठीक समय देने वाली घड़ी में किंचित् मात्र धूल भी घड़ी का चलना बन्द कर देती है।, वैसे ही बुद्धि में किंचित् मात्र भी विकार आया तो वह कार्य नहीं कर सकती।
‘‘अब इस निर्मल बुद्धि से दर्शन-शास्त्र को पढ़ोगी तो सब बात समझ में आती जायेगी।’’
रजनी की दिनचर्या में अब एक काम दर्शन-शास्त्र पढ़ने का भी हो गया। वह प्रातः चार बजे उठकर, स्नान-सन्ध्या से निवृत्त हो, प्रातः की चाय ले, छः बजे मजदूरों की बस्ती में पहुँच जाती थी। उसने तीन बस्तियों में अपना कार्य आरम्भ कर रखा था। वह बारी-बारी से तीनों में जाया करती थी। इस प्रकार सप्ताह में प्रत्येक बस्ती में उसके दो चक्कर लग जाया करते थे। रविवार के दिन वह इस कार्य से छुट्टी किया करती थी। अपने इस चिकित्सा-कार्य से वह नौ बजे लौटा करती थी। प्रातः का अल्पाहार ले, आधा घण्टा आराम होता था और फिर दस बजे से एक बजे तक स्वाध्याय में व्यतीत होता था। इस काल में वह मेडिकल जनरल अथवा धर्म-शास्त्र की पुस्तकें पढ़ा करती थी। एक बजे डॉक्टर आनन्द लंच के लिये जाया करते थे। दोनों लंच लेते थे। डॉक्टर साहब एक घंटा-भर आराम कर पुनः अस्पताल में चले जाते थे और रजनी मिश्रजी के यहाँ दर्शन-शास्त्र पढ़ने के लिये चली जाती थी। सायं छः बजे, अपने पति के आ जाने पर वह उनके साथ गोमती-तट पर घूमने जाती थी। दोनों पति-पत्नी वहाँ से घूमकर आठ बजे लौटा करते थे। साढ़े आठ बजे के लगभग रात का भोजन होता और फिर समाचार पत्र आदि पढ़ा जाता था। इतने में सोने का समय हो जाता था।
इस प्रकार की दिनचर्चा में तब भिन्नता आ जाती थी, जब कोई रोगी रजनी से परामर्श के लिये आता था।
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