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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
सौभाग्यवती भौचक्की हो शारदा का मुख देखती रह गयी। शारदा ने अपनी सास को परेशान देखकर कह दिया, ‘‘माताजी! मेरा निवेदन है कि इस विषय में निश्चय करने से पूर्व एक बार फिर विचार कर लिया जाये।’’
‘‘परन्तु बात तो हो गयी है। इन्द्र के पिता एक बार कही बात से टलेंगे नहीं।’’
शारदा के लिए इस कथन के पश्चात् कुछ कहने को नहीं रहा था। रामाधार के घर में उसके कहने का विरोध नहीं हो सकता था। शारदा को इस घर में आये चार वर्ष के लगभग हो गये थे। इस काल में उसने अपने सास-श्वशुर से कभी विवाद नहीं किया था। वह चुप कर रही, परन्तु उसकी आत्मा चुप नहीं रही।
उसी दिन मध्याह्न के भोजनोपरान्त शारदा ने राधा को बता दिया, ‘‘पिताजी वचन दे आये हैं। वे अपने वचन से टलेंगे नहीं।’’
‘‘तो मैं क्या करूँ?’’
‘‘तुम्हारा विचार भी तो एक विचार ही है। जो कुछ समझती हो वह वैसा ही हो, यह आवश्यक नहीं। क्या उनके परिवार के विचार वैश्यों के-से होंगे? इस अवस्था में मैं एक बात जानती हूँ कि तुम अपने को भगवान् के अर्पण कर उसका चिन्तन करो। वही तुमको मार्ग दिखायेगा।’’
रामाधार ने साधना को लिख दिया था कि उसका ज्ञानेन्द्रदत्त् से वार्तालाप हुआ है। उसने यह भी लिखा था कि वह उनसे मिलकर उनकी इच्छा के लिषय में भी लिखे।
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