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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘देखो, हम भी कितने मूर्ख हैं। हमको पहले उसकी बात स्मरण ही नहीं आयी। उसे जरूर लिखो, यही बैठकर अभी लिखो। मैं भी देख लूँगी और यदि समझ आया तो अपनी तरफ से भी दो शब्द लिख दूँगी।’’
राधा ने पत्र लिख दिया–‘‘रजनी बहन के चरणों में राधा की चरण-वंदना मिले। हम सब यहाँ सकुशल हैं और वहाँ की कुशलता परमात्मा से शुभ चाहते हैं। मेरी तथा शारदा भाभी की जीजाजी को नमस्ते देना।
‘‘माताजी की इच्छा थी कि आपको तथा जीजाजी को कुछ दिन दुरैया में आने का निमंत्रण दिया जाये, परन्तु एक तो यहाँ गरमी बहुत है, वर्षा होने पर यहाँ हरियाली हो जाया करती है और तब ऋतु अच्छी हो जाती है। ठंडी हवा बहने लगती है। उस समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। दूसरे, एक अन्य बात की भी प्रतीक्षा हो रही है। कदाचित् लखनऊ में मेरा घर बनाने का विचार किया जा रहा है। उसी सम्बन्ध में पिताजी लखनऊ आने वाले हैं।
‘‘इन दोनों बातों की प्रतीक्षा किये बिना मैं बहन को निमंत्रण दे रही हूँ। मेरा मन कहता है कि लखनऊ में मेरा प्रस्तावित घर मेरे अनुकूल नहीं रहेगा। पिछले दिनों से मैं भगवान् से प्रार्थना कर रही थी कि मेरे इस भ्रम का निवारण हो। वह नहीं हुआ। प्रत्युत् ज्यू-ज्यू विचार करती हूँ, मेरा मन इस सम्बन्ध से उपराम होता जाता है।
‘‘अतः मैं इस विषय में मार्ग-दर्शन करना चाहती हूँ। आज एकाएक मन में यह बात आयी है कि आप ही मुझको मार्ग दिखा सकोगी।’’
‘‘वे कौन हैं, कहाँ रहते हैं और क्या करते हैं, साधना मौसी से पता चल जायेगा। पिताजी वचन दे चुके हैं। साधना मौसी ने ही सब प्रबन्ध किया है।’’
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