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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘नहीं। कुछ ही दिनों में बुद्धिमान व्यक्ति एक-दूसरे को समझ एक-दूसरे के भावों का आदर करने लगते हैं। देखो राधा! भाभी सरोज तो भैया के साथ खेलती और पढ़ती रही हैं। अतः उनमें स्वाभाविक अनुकूलता उत्पन्न हो गयी है। परन्तु वह बात सबके साथ नहीं हो सकती। प्रत्येक को अपने अधिकतर दूसरे के अधिकार का विचार कर ही बनाने चाहिये।’’
राधा कुछ समय तक इसका अर्थ समझने में लीन रही। रजनी ने कह दिया, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी तपस्या अभी पूर्ण नहीं हुई। अभी और तपस्या करो, भगवान् तुम्हारी सुन लेंगे।’’
शारदा हँस पड़ी। हँसते हुए उसने कह दिया, ‘‘उस तपस्या के करते हुए तो तुम मिली हो। अब तुम फिर तपस्या करने की बात कह रही हो। राधा बेचारी तो रबड़ की गेंद हो जायेगी, जो इधर से उधर और उधर से इधर फेंकी जा रही है।’’
‘‘इस पर तीनों हँसने लगीं। राधा का यह निश्चय मत था कि यदि कोई उसकी जीवनचर्या में बाधक सिद्ध होगा तो जीना व्यर्थ समझ जीवन को त्याग देगी।
‘‘क्यों? क्या जीवन त्यागने से उनका ही त्याग कर दिया जाये तो अच्छा नही रहेगा?’’
‘‘यह सम्भव हो सकेगा क्या?’’
‘‘हाँ, यदि अन्य कोई चारा न रहा तो यही होगा। यह सम्भव है।’’
राधा गम्भीर विचार में निमग्न हो गयी। इसके पश्चात् दूसरी बातें होती रहीं। अभी तक इन्द्र के पहुँचने का कोई समाचार नहीं आया था। उसके समाचार की वे एक सप्ताह तक आशा करते थे। जब रजनी ने इन्द्र के विषय में पूछा तो शारदा भी रजनी के पति के विषय में पूछने लगी, ‘‘कैसे हैं वे तुम्हारे?’’
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