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उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘वे कभी अंग्रेजी पिक्चर देखना चाहते हैं तो मैं उनके साथ चली जाती हूँ। वे स्वयं नाट्य कला की प्रशंसा करते हैं तो मैं उसकी अश्लीलता की अलोचना करती हूँ। वे उस अश्लीलता को अंग्रेजी के रीति-रिवाज की दुहाई देकर क्षम्य बताते हैं तो मैं यहाँ हिन्दुस्तान में उसके दिखाये जाने की स्वीकृति को सेंसर करने वालों की मूर्खता बताती हूँ। परन्तु शारदा! हमारा यह विवाह सीमित रहता है। हम कभी वितण्डावाद नहीं करते। न ही हम कभी इन विवादों का जीवन के साथ सम्बन्ध मानते हैं।’’
अब शारदा ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘‘तो क्या कोई वस्तु है जो आप दोनों के जीवन के साथ एक जैसा सम्बन्ध रखती है?’’
‘‘बहुत हैं। हमने भोजन की एक व्यवस्था बना रखी है। उस पर हम सदा सहमत रहते हैं। प्रातः तो बिस्कुट और चाय मिल जाती है। पश्चात् प्रातः का अल्पहार होता है। प्रातः की चाय तो उठते ही मिलती है। मुझको प्रातः चार बजे और उनको पौने आठ बजे। परन्तु अल्पहार हम एक ही समय लेते हैं। वे सवा नौ बजे तैयार हो जाते हैं, और मैं भी डाइनिंग हॉल में पहुँच जाती हूँ। अल्पहार में कम-से-कम एक वस्तु हमारी अपनी रुचि की अवश्य रहती है। मुझको एक पराठा चाहिये तो वह अवश्य होगा और यदि उनको दलिया चाहिये तो दलिया भी बनेगा। इस प्रकार हम दोनों एक-दूसरे का विरोध न करते हुए भी अपनी-अपनी रुचि का खाना बनवाने का प्रबन्ध कर लेते हैं। इसी प्रकार दिन का भोजन और रात का खाना भी इकट्ठे खाते हैं। सायंकाल की चाय कभी-कभी इकट्ठे लेते हैं और कभी-कभी जैसा अवसर हो, वैसा करते हैं।
‘‘और देखो शारदा! हम घर में दो-चार बच्चों के लिए भी परस्पर सहमत हैं।’’
‘‘तो इसमें भी मतभेद हो सकता है क्या?’’ शारदा ने हँसते हुए कहा।
‘‘हाँ। आजकल के शिक्षित समाज में उस विषय पर भी मतभेद होता है और हो सकता है।’’
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