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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


महादेव विस्मय से माँ का मुख देखने लगा। माँ ने उसके इस प्रकार देखने का अभिप्राय नहीं समझा। माँ को चुप देख महादेव ने कहा, ‘‘माँ, जो रुपये तुमने परसों दिये थे, वे तो मैं कल ही दे आया हूँ। इन्द्र अभी रॉयल होटल में ठहरा हुआ है। मैंने जब रुपये दिये तो उसने कहा कि उसको पिता ने काफी रुपये दिये हुए हैं। इस पर मैंने कह दिया, ये रुपये तुम्हारी नानी के दिये हुए हैं। यदि नहीं लोगे तो उसका अनादर हो जायेगा। ये तुम रख छोड़ो और सोच-समझकर प्रयोग करना।’ मैंने यह भी कहा था, ‘किसी बैंक में सेविंग का खाता खोलकर जमा करा दो। आवश्यकता होने पर निकाल लिया करना।’ ’’

एक क्षण के लिये तो महादेव की माँ भौचक्की हो सुनती रही। उसको समझ नहीं आया कि महादेव को किसने उसके नाम से रुपये दिये हैं। इस समय उसको विचार आया कि कदाचित् महादेव की पत्नी ने उसके नाम से भेजे हों। इतना विचार कर उसने कह दिया, ‘‘तब ठीक है। मैं विचार कर रही थी कि कदाचित् तुमने नहीं पहुँचाये हों।’’

‘‘मैं तो परसों दुरैया जाने वाला था, परन्तु उसी दिन प्रातःकाल ही इन्द्र अमीनाबाद में घूमता हुआ मिल गया। मैंने उससे पूछा, ‘‘कहाँ ठहरे हो?’

‘‘तो वह बोला, ‘रॉयल होटल में। दो रुपये नित्य का कमरा लेकर ठहरा हूँ। प्रवेश पाने के पश्चात् बोर्डिंग हाउस चला जाऊँगा।’ ’’

‘‘कल मैं होटल में उससे मिलने गया और रुपये दे आया।’’

माँ चुप कर रही। महादेव पौने दस बजे तैयार हो, भोजन कर कार्यालय को चला गया। इस समय माँ ने उर्मिला को बुलाकर पूछा, ‘‘इन्द्र को रुपये तुमने भेजे थे?’’

‘‘हाँ माँजी!’’

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