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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘कितने?’’

‘‘पाँच सौ। मैंने उनको चार दिन हुए रुपये दिये थे और कहा था कि वे दुरैया जाकर दे आएँ। इनको अवकाश नहीं मिला। परसों ये जाने वाले थे, परन्तु इन्द्र यहीं लखनऊ में ही मिल गया और कल ये उसको रुपये पहुँचा आये हैं।’’

महादेव की माँ तो उसको दो सौ रुपये ही भेजने वाली थी। उसके पास अपने पति से छिपाकर देने के लिये बस इतने ही थे।

इस कारण उसने उर्मिला को दो सौ रुपये देने के लिये हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अभी तो इतने ही हैं। शेष कुछ दिन पीछे दूँगी।’’

‘‘माँजी! रहने दीजिये। वे भी तो आपके ही हैं। उस दिन साधना बहन कह रही थीं कि उसको पाँच सौ रुपये तुरन्त चाहिये। मेरे पास थे सो मैंने भेज दिए हैं।’’

‘‘परन्तु तुमने तो मेरे नाम से ही भेजे हैं?’’

‘‘आप घर में बड़ी हैं। आपके नाम से ही जाने चाहिये थे।’’

‘‘अच्छा, तुम यह रख लो।’’

‘‘नहीं माँजी! जो दे दिये सो दे दिये। आप ये फिर कभी उसको भेज दीजियेगा।’’

माँ उर्मिला की भावना को समझ चुप कर गयी। इस समय साधना आ गयी। माँ ने उसको देख पूछ लिया, ‘‘साधना! तुम तो शाम तक आने की बात कर रही थीं?’’

साधना मुस्कराकर बोली, ‘‘मैं इन्द्र के कॉलेज गयी थी। वह वहाँ फार्म भर रहा था। मुझको देख उसने पूछ लिया, ‘मौसी, कैसे आयी हो?’ मैंने बताया, ‘माँजी ने भेजा है और रुपये भेजे हैं कि जरूरत हो तो दे आऊँ।’

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