उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘इस पर वह मुझको बाहर लॉन में ले गया। उसने जेब से सात सौ रुपये निकालकर दिये और कहाँ, ‘पिताजी ने छः मास की फीस इत्यादि और दो मास के खर्चे के लिए दिये हैं। साथ ही यह देखो।’ उसने जेब से सेविंग बैंक खाते की पास बुक निकालकर दिखाई, ‘नानीजी ने मामाजी के हाथ पाँच सौ रुपया भेजा है। यह मैंने बैंक में जमा करा दिया है। अभी इनकी आवश्यकता नहीं थी। मौसी! अब नानीजी ने और भेज दिये हैं तो मुझको लौटाने ही पड़ेंगे।’
‘‘मैं चुप कर रही। पर माँ! तुमने भेजे थे तो मुझको बता तो देना था।’’
माँ हँस पड़ी। हँसकर उसने कहा, ‘‘साधना! इस घर में तीन औरतें हैं और तीनों ही, एक-दूसरे से बात किये बिना, इन्द्र की सहायता करना चाहती हैं। वे रुपये उर्मिला ने मेरे नाम से भेजे हैं।’’
‘‘सत्य? भाभी! तुम बहुत ही अच्छी हो। परन्तु भैया को पता चल गया तो नाराज होंगे।’’
‘‘और पिताजी को पता चला तो प्रसन्न होंगे क्या?’’ उर्मिला ने मुस्कराते हुए पूछ लिया। ‘‘माँजी! यह तो मन की भावना का प्रश्न है। इसमें मैं उनसे पूछने अथवा उनको बताने की आवश्यकता नहीं समझती।’’
साधना की हँसी निकल गयी। उसने कहा, ‘‘ठीक यही बात मेरे मन में भी आयी थी। पर माँ भी तो पिताजी को बताये बिना ही रुपये भेजना चाहती थीं।’’
|