उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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इस पर भी बात छिपी न रह सकी। इन्द्रनारायण नाना के घर से तिरस्कार पा अपने माता-पिता के साथ गाँव लौटकर गया तो उसके कॉलेज में प्रवेश के लिये रुपये का प्रबन्ध होने लगा। जीवन में पहली बार रामाधार पत्नी के भूषण लेकर गाँव के बनिये के पास बेचने के लिये गया। रामजियावन, यह उस बनिये का नाम था, विस्मय से पंडितजी का मुख देखता रह गया।
‘‘क्या देख रहे हो, रामजियावन!’’ रामाधार ने मुस्कराते हुए पूछ लिया।
‘पण्डितजी! मुझको होश सँभाले पचास वर्ष हो गये हैं और तब से ही आपके परिवार से हमारा वास्ता पड़ रहा है। आज तक न तो कभी आपके पिता ने और न ही आपने एक पैसा उधार माँगा अथवा लिया है। इसके विपरीत हमारी तरफ आपके रुपये ही शेष रह जाते थे। यह आज क्या बात हुई है?’’
रामाधार ने सत्य बात बता दी। उसने कहा, ‘‘इन्द्र डॉक्टरी के लिये कॉलेज में भरती होने जा रहा है। पाँच सौ रुपया उसके दाखिल होने के समय खर्च होना है। इतना रुपया एकदम तो अपने पास है नहीं।’’
इस पर रामजियावन गम्भीर विचार में पड़ गया। कुछ विचार कर उसने कहा, ‘‘ये भूषण तो अपने पास रखिये। रुपया जितना जरूरत हो ले जाओ। जब होगा दे देना। हम आपके भूषण नहीं रख सकते।’’
‘‘देखो जी!’’ रामाधार ने कहा, ‘‘लड़का बहुत महँगी पढ़ाई करने जा रहा है। दिन-प्रतिदिन खर्चा तो बढ़ता जायेगा और कह नहीं सकता कि रुपया कब वापस कर सकूँगा। इसलिए ये भूषण तोलकर इनका दाम लगा दो।’’
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