उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘नहीं पण्डितजी! आप रुपया ले जाइयेगा। और भी कुछ आवश्यकता हो तो बताइयेगा। मेरे पास हुए तो अवश्य दे सकूँगा। ये मेरे आपकी ओर उधार रहे। इन्द्र जब कमाने लगेगा तो दे दीजियेगा। बेचारी पत्नी के भूषण बेचकर तो पाप कमाओगे। इससे भी पाप का भागी बना दोगे।’’
जब रामजियावन नहीं माना तो रामाधार सात सौ रुपये ले आया। वही पर लिखते समय रामाधार ने पूछा था, ‘‘क्या सूद लगा रहे हो?’’
‘‘कुछ नहीं। यह सूद के बिना होगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्यों का उत्तर मेरे पास नहीं। आपसे सूद लेने को जी नहीं चाहता।’’
इन्द्रनारायण को जब पता चला कि रुपया बिना भूषण बेचे और बिना ब्याज के मिल गया है, तो वह चकित रह गया। उसको रजनी का लिखा स्मरण हो आया–‘निर्बल के बल राम।’ वह मन में विचार करता था कि क्या सत्य ही रामजियावन के मन में यह प्रेरणा भगवान् की ओर से हुई है? उसको दोनों में कुछ सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता था। यदि इस दया में किसी बात का संबंध है, तो वह उसके पिता की विद्वत्ता, लोगों की निःशुल्क सेवा तथा सबसे मीठा बोलने का ही हो सकता है। ऐसा विचार कर वह चुप कर रहा।
नियत दिन वह लखनऊ के लिये चल पड़ा। चलते समय पिता ने पूछा, ‘‘नानी के घर जाओगे?’’
इन्द्रनारायण मुख देखता रह गया। इस पर पिता ने पूछ लिया, ‘‘क्यों, क्या विचार कर रहे हो?’’
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