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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘इतना प्रबन्ध हो गया है क्या?’’

‘‘हाँ, हो गया है।’’

‘‘मैं घर से विचार कर आयी थी कि कुछ कमी हुई तो मैं दे दूँगी।’’

‘‘रजनी बहन! इसके लिए धन्यवाद। अभी तो है।’’

‘‘अच्छा, एक बात करो। बोर्डिंग हाउस में भरती होने से बहुत ज्यादा खर्चा होगा। हमारी कोठी में एक कमरा खाली पड़ा है। मैंने पिताजी से पूछ लिया है। आप वहाँ ठहर जायें तो कैसा रहे?’’

इस प्रस्ताव पर तो इन्द्र विस्मय से मुख देखता रह गया। रजनी ने आगे कहा, ‘‘आपके पिता ने इतना प्रबन्ध कर दिया, तो मैं समझती हूँ कि और भी कर सकेंगे। परन्तु इस पर भी धन व्यर्थ गंवाने में क्या लाभ? पिताजी को कष्ट तो होगा ही।’’

इन्द्रनारायण विचार कर रहा था कि सात सौ उधार तो अभी लिये हैं। खाने-पीने का खर्चा भी साठ-सत्तर रुपये प्रतिमास पड़ जायेगा। इस प्रकार यदि पिताजी को प्रतिमास लेकर भेजना पड़ा तो बहुत कठिनाई होगी। वह मन में विचार कर रहा था कि प्रस्ताव तो बहुत ही अच्छा है, परन्तु रजनी के पिता ने स्वीकृति दे दी है क्या? साथ ही उन्होंने क्या समझकर दी है? वह अभी विचार कर ही रहा था कि रजनी ने पुनः कह दिया, ‘‘आप अभी बोर्डिंग हाउस में सीट के लिये न लिखिये। आज मेरे साथ चलकर स्थान देख लीजिये। यदि ठीक समझ में आये तो फिर वहाँ रहने में संकोच नहीं होना चाहिये।’’

दोनों ने फार्म भर दिये। पश्चात् वहाँ के हैडक्लर्क को दिखाया कि ठीक भरा गया है अथवा नहीं। जब उसने देखकर ठीक कह दिया तो फार्म एक क्लर्क के पास जमा करा दिया।

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