उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
फार्म प्रिन्सिपल से स्वीकार किये जाने पर रुपया जमा कराना था। दोनों वहाँ से एक इक्के में रजनी के पिता रमेशचन्द्र सिन्हा की कोठी पर जा पहुँचे। कोठी सर्वथा खाली थी। इन्द्र ने प्रश्न-भरी दृष्टि से रजनी की ओर देखा तो रजनी ने कह दिया, ‘‘माता-पिता तथा भाई-भाभी सब नैनीताल गये हुए हैं। कोठी में चौकीदार ही है।’’
‘‘तो तुम यहाँ अकेली रहोगी?’’
‘‘हाँ, और यदि आपको जगह पसन्द आ गयी तो दोनों।’’
कुछ चुप रहकर रजनी ने कहा, ‘‘पिताजी ने दो कमरों में से, जो आपको पसन्द हो, लेने की स्वीकृति दे रखी है। एक तो यह है।’’ उसने कोठी के आगे बरामदे के कोने का कमरा दिखा दिया, ‘‘और दूसरा, इधर आइये।’’ वह उसको कोठी के पीछे की ओर ले गयी। यह कमरा भी कोठी में ही था, परन्तु कोठी से पृथक्-सा था। विशेषतया बाहरी मेहमानों के लिये बनवाया गया था। परन्तु अब कोठी में ‘आउठ हौसिज’ बन जाने से मेहमानों के लिए पृथक् प्रबन्ध हो चुका था। बाहर वाला कमरा बड़ा था, उसमें शौचालय एवं स्नानघर साथ ही थे। इस कोठी के पीछे वाले कमरे से शौचालय एवं स्नानघर कुछ दूर थे। कमरा भी बहुत छोटा था।
इन्द्रनारायण ने रजनी की आँखों में प्रश्न-भरी दृष्टि से देखते हुए पूछ लिया, ‘‘यह इतनी उदारता है कि मुझको स्वप्नवत् प्रतीत हो रही है। क्या सत्य ही पिताजी ने मेरे यहाँ रहने की स्वीकृति दी है? आपको मेरे लिये बहुत-कुछ कहना-सुनना पड़ा होगा।’’
‘‘नहीं, जब आपका पत्र मिला तो माता-पिता वहाँ पहुँच चुके थे। मैंने आपका पत्र माताजी को दिखाया और आपका परिचय दिया कि आप प्रान्त में तृतीय नम्बर पर आये हैं तो माताजी ने कहा, ‘यह तो घोर अन्याय हो जायेगा यदि आपको आगे पढ़ने का मौका न मिला।’’
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