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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘डियरेस्ट देवी जी!
आपके आदेश से मिली चाय के पेट में रहते ही मैं यह निमन्त्रण लिख रहा हूं। सिद्धेश्वरी देवी के सौन्दर्य के जादू से प्रभावित मैं आपके दर्शनों की लालसा में भरा हुआ आपको वेंजर में सोमवार के दिन सायं चार बजे का निमन्त्रण देता हूं। आप आने की कृपा करें।

–मदन’’


निश्चित दिन और समय पर महेश्वरी को वेंजर में आते देख मदन हंस पड़ा। हाथ मिलाते हुए उसने कहा, ‘‘कहिए, आपके भीतर की सिद्धेश्वरी को आप घर पर छोड़ आई हैं या वह इस समय भी साथ ही हैं?’’

‘‘आपने संस्कृत नहीं पढ़ी, इसलिए सिद्धेश्वरी और महेश्वरी में एकात्मकता का अनुमान नहीं लगा सके। महेश्वरी ही सिद्धेश्वरी है। एक ही शक्ति के दो रूप हैं। एक कार्य सिद्ध करती है और दूसरी सिद्धि के उपरान्त वरदान देती है।’’

‘‘परन्तु उस दिन तो कार्य असिद्ध ही होने जा रहा था। आपको देखकर घर गया तो मन में लगभग निश्चय कर चुका था कि मुझे अपनी जीवन-संगिनी के लिए कहीं अन्यत्र खोज करनी चाहिये। आपकी गोल-गोल नाक, मोटी-मोटी आंखें, यह सांवला-सा रंग कुछ मन को भाया नहीं था। बाबा ने जब आपके विषय में पूछा तो जो मैंने देखा था, उदास मन से वह सब बता दिया। परन्तु उन्होने एक बात कहकर मेरे निर्णय पर पौंचा फेर दिया। उनका कहना था कि पत्नी लम्बी नहीं होनी चाहिये। काला रंग तो उसकी शक्ति का सूचक है। हमारे सब अवतार श्याम वर्ण ही थे। साधारण रूपरेखा तो इस बात की गारण्टी है कि पत्नी निष्ठावान रहेगी। कभी विपत्ति के समय भी वह छोड़कर भाग नहीं जायेगी।

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