उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘उन्होने यह भी कहा था कि मुझको तुम्हारी बांहो और जांघों की मांसपेशियों को देखना चाहिए था, जिससे पता चल जाता कि वे कितना सुदृढ़ हैं। तुम्हारी बुद्धि की परीक्षा करनी चाहिए थी। तुम्हारी सुथराई और चतुराई का अनुमान लगाना चाहिए था। यह क्या किया केवल मुंह देखकर चले आये?
‘‘इसी कारण मुझे यह निमन्त्रण देना पड़ा है।’’
‘‘तो पहले भी आपने ही महेश्वरी को निमन्त्रण दिया था?’’
‘‘हां, परन्तु महेश्वरी को नहीं। प्रत्युत महेश्वरीदेवी के घर पर स्वयं को। और अब वैंजर पर महेश्वरीदेवी और स्वयं को। कदाचित् एक तीसरे निमन्त्रण की भी आवश्यकता पड़ जाय। महेश्वरी और सिद्धेश्वरी दोनों को बाबा के घर पर।’’
‘‘इन सब निमन्त्रणों से तो मैं थक जाउंगी।’’
‘‘तो इसके विपरीत भी हो सकता है। आप अपने पिता के घर पर मुझे, मेरे बाबा और दादी को निमन्त्रण दे दें।’’
‘‘यह तो तभी हो सकेगा, जब मुझको और आपको एक ही कार्ड पर निमन्त्रण देने का अधिकार प्राप्त हो जायेगा।’’
‘‘वह कब होगा?’’
‘‘जब हम विवाह बन्धन में बंध जायेगे।’’
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