उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
‘‘पर रात तो विवाह की बात हो रही थी।’’
‘‘वह सब तो अब वापस आकर ही होगा।’’
दादी टुकर-टुकर उसका मुख देखती रह गई। मदन अपने कमरे में जाकर कान्ट्रैक्ट फार्म भरने की तैयारी करने लगा। यह तो कुछ भी नहीं था। मदन तो सैतान के सम्मुख भी हाथ बांधकर खड़ा होने के लिए तैयार था। अमेरिका जाना आज वैसा ही लग रहा था, जैसे किसी समय में एक मानव को, देव लोक में जाना लगता होगा।
अगले दिन उठ, स्नान इत्यादि कर वह अपने बाबा के साथ एक परिचित वकील के पास गया। उसके सम्मुख बैठ कान्ट्रैक्ट फार्म भरा, तदनन्तर उसके साथ जाकर मजिस्ट्रेट से उसे प्रमाणित करवाया। फिर वह मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन में जा पहुंचा। वहां फार्म और अपनी फोटो देकर वह सीधा लाला फकीरचन्द्रकी कोठी पर चला गया। इस भाग-दौड़ में वह दो बजकर उन्नीस मिनट पर ही पहुंच सका था।
महेश्वरी टैनिस की वेश-भूषा धारण किये हुए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। टैनिस शू और दुग्ध-धवल मोजे उसके गन्दमी रंग पर विलक्षण शोभा पा रहा थे।
‘‘तो आप आ गये?’’
‘‘हां, समय पर पहुंचने के लिए बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ी है। मैं आज एक अति आवश्यक कार्य में व्यस्त था।’’
महेश्वरी को कॉलेज पहुंचने की उत्सुकता थी, इस कारण मदन की बात पर उसने ध्यान नही दिया और लपककर मोटर में जा बैठी। वहीं से मदन को पुकारकर कहने लगी, ‘‘आइये-आइये। मैच ठीक तीन बजे आरम्भ होने वाला है।’’
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