उपन्यास >> प्रगतिशील प्रगतिशीलगुरुदत्त
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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।
निश्चित समय पर मैच हुआ और उसमें हुई महेश्वरी की विजय ने मदन के मन से, रहे-सहे संशय को भी दूर कर दिया। टैनिस खेलने के परिधान में वह बहुत ही आकर्षक प्रतीत होती थी। मदन ने मन में निश्चय-सा कर लिया था कि वह महेश्वरी से विवाह करेगा। इसी समय उसके मन में सन्देह उठा कि क्या वह दो वर्ष तक उसकी प्रतीक्षा करेगी।
कोठी में लौट कर महेश्वरी ने चाय मंगवाई। मदनस्वरूप भी अब बात को अन्तिम रूप देने के लिए उससे निश्चय करना चाहता था। जब दोनों ड्राइंग रूम में बैठ गये तो मदन ने कहा, ‘‘आज की विजय पर तुन्हें बधाई।’’
‘‘धन्यवाद अब बताइये कि आपकी और मेरी सांझी बधाई कब होगी?’’
‘‘मैं तो आज ही से स्वयं को भाग्यशाली समझने लगा हूं।’’
‘‘यह तो ठीक है, परन्तु इसका निर्णय तो हमारे माता-पिता ही करेंगे?’’
‘‘तो क्या यही तुम्हारी प्रगतिशीलता है?’’
‘‘परन्तु इसमें रूढ़िवादिता भी कहां से आ गई? मैंने आपको उत्तर दे दिया है। आपने पूछा था कि आप स्वयं को भाग्यशाली मानने लगे हैं। मैंने उसको स्वीकार कर लिया है। अब शेष तो माता-पिता ही तय करेंगे।’’
‘‘मैं केवल मुख से ही नही सुनना चाहता था, मैं तो इसका क्रियात्मक रूप देखना चाहता था।’’
‘‘से?’’
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