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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘पन्द्रह सितम्बर को टर्म आरम्भ हो रही है। दो वर्ष की पढ़ाई है।’’

‘‘अच्छी बात है।’’ धैर्य और सन्तोष के साथ उसने कहा।

‘‘मैं तो यह कह रहा था कि विवाह यदि जाने से पूर्व हो जाय तो क्या ठीक नहीं रहेगा?’’

मैं इसके विपरीत यह पूछना चाहूंगी कि विवाह यदि वहां से लौटने के अनन्तर हो तो कैसा रहे?’’

‘‘मैं तो आज सायंकाल विवाह कर तुम्हें अपने घर ले जाना चाहूंगा।’’

‘‘मेरी अध्यापिका के विचार में यह प्रतिगामिता हो जायेगी।’’

‘‘वाह! मैं उससे पूछना चाहूंगा कि इस समय दिन है अथवा रात।’’

महेश्वरी ने ड्राइंगरूम के बाहर देखकर कह दिया, ‘‘वे कह देंगी कि न यह न वह। यह सन्ध्या का समय है। हां दिन समाप्त हो रहा है और रात आरम्भ होने वाली है। आप क्या समझ रहे हैं?’’

‘‘इसमें तो मतभेद नहीं हो सकता। हां, एक युवक और युवती को विवाह का निश्चय कर मिलने के लिए सालों प्रतीक्षा करना प्रतिगामिता है अथवा प्रगतिशीलता, इसमें मतभेद है।’’

‘‘तो आपको उससे अमेरिका जाने से पूर्व ही मिला दूंगी और इस समस्या का सुझाव आप उनसे पूछ लीजियेगा। अभी तो इसका सुझाव माता-पिता के हाथ में है।’’

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