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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।

5

‘‘यह तुम किस प्रकार कह रही हो कि लड़की इससे विवाह कर लेगी?’’

‘‘जितनी देर तक मदन बैठा रहा, लैसली उसके मुख पर ही देखती रही। उसकी दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता था कि वह कोई अति आकर्षक वस्तु देख रही है।’’

‘‘तो क्या यह सब तुमने उसके मुख पर देखा था?’’

‘‘मुख पर नहीं उसकी आंखों में। देखिये, जब पहले दिन मैंने आपको देखा था तो मैं ठीक वैसे ही आपका मुख देखती रही थी जैसे कि लैसकी मदन का देख रही थी।’’

‘‘मुझे तो ऐसी कोई बात दिखाई नहीं दी।’’

‘‘इसलिए कि आप औरत नहीं हैं और आपने इतनी निष्ठा और प्रेम से किसी की ओर देखा भी नहीं।’’

‘‘तुम्हारी ओर भी नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं समझती हूं कि पुरुषों में रस-ग्रहण वृत्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ इच्छा होती ही नहीं।’’

‘‘और स्त्रियों में क्या इच्छा होती है?’’

‘‘उनमें अपने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने की भावना होती है। देखिए, मैं आपके साथ अपने सम्बन्ध का इतिहास बताती हूं।’’

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