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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘क्या लगा है उस पर?’

‘भाभी! तो क्या तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता?’

‘‘वह बेचारी कुछ समझ नहीं सकी और बोली, ‘तुम्हारा भी विवाह होगा तो तुमसे पूछूंगी कि तुम्हारे पति के मुख पर कुछ लगा है अथवा नहीं।’’

‘मैं विवाह नहीं कराऊंगी।’

‘यह भी तुम्हारे वश की बात है क्या?’

‘हां, क्यों नहीं?’

‘‘इस पर आप और भाभी हंसने लगे थे। उसी दिन आप मुझे पृथक् कमरे ले गये और पूछने लगे, ‘नीला! अब तुम्हारा मन मेरा मुख चूमने को नहीं करता?’

‘करता तो है।’

‘इसलिए तो मैं तुमको यहां लाया हूं।’ और उसी समय आपने मुझे अपनी पत्नी बना लिया। बाद की बात तो सरल थीं। उसका परिणाम यह हुआ कि मेरा और आपका चार वर्ष तक सम्बन्ध रहा और लैसली का जन्म हो गया।

‘‘मैं समझ रही हूं कि कुछ ऐसा ही इन दोनों में होने वाला है।’’

‘‘यह तो ठीक नहीं।’’

‘‘क्यों?’’

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