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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘इसलिए कि सब पुरुष मेरे सदृश प्रेममय और साहसी नहीं होते। मेरा जब तुमसे सम्बन्ध बना तो मैंने बहिन-भाई के रिश्ते को तोड़ डाला। मैंने चार वर्ष तक तुमसे सम्बन्ध बनाये रखा और सदा इस बात के लिए तैयार रहा कि अपनी पत्नी और माता-पिता से फटकार खाऊं। फिर तुम्हारे लिए प्रसव का प्रबन्ध किया। तुम जब घर से लापता हुई तो घर में भारी हल्ला मचा और मैंने तुम्हारा रहस्य वितिद होने नहीं दिया।

‘‘जब तुम्हारे प्रसव का समय समीप आया तो तुम्हारी नौकरानी को सन्देह हो गया कि तुम कुंवारी हो और चोरी-चोरी बच्चा जनने के लिए वहां गई हो। वह भाग गई। उस समय तुम्हारा प्रबन्ध देहरादून से दूर दिल्ली करना पड़ा। तुम बच्ची को वहाँ छोड़ चली आईं। यह सब प्रबन्ध मैंने इस प्रकार किया कि किसी को किंचित्-मात्र भी सन्देह नहीं हुआ। पांच वर्ष तक तुम्हें देहरादून रखा। एक दिन तुमने कहा कि तुम अकेली रह-रहकर ऊब गई हो। मैंने अपनी पत्नी और माता-पिता को छोड़ तुम्हारे साथ अमेरिका जाने का प्रबन्ध कर लिया। मेरे घर वालों को अभी यह विदित नहीं कि मैं और तुम यहां पर हैं। हिन्दुस्तान में केवल फकीरचन्द ही जानता है कि मैं यहां पर हूं। वह मेरा परम मित्र है। उसको मेरे और तुम्हारे सम्बन्ध का भी ज्ञान है।

‘‘मुझे भय है कि यदि मदन के लैसली के साथ सम्बन्ध बन गया तो वह लड़की भी उस प्रकार रक्षा कर सकेगा, जैसे मैंने तुम्हारी रक्षा की थी।’’

नीला गम्भीर विचारों से मग्न बैठी रही। उसने देर तक विचार कर पूछा, ‘‘तो क्या आप समझते हैं कि मेरा मदन को यहां पर रखना एक भूल थी?’’

‘‘नहीं, यदि मैं इस को भूल माल लूं तो लड़की को अमेरिका लाना भी भूल ही माननी होगी। फिर अपनी लड़की को यहां की लड़कियों से मेल-मुलाकात की स्वीकृति देनी भूल कहनी होगी। मैं यह समझता हूं कि तुममे जो हिन्दुस्तानी भावना है, वह उसमें नहीं रहनी चाहिए। तुम यौन क्रिया का प्रेम से घना सम्बन्ध मानती हो। पति के प्रति निष्ठा भिन्न बात है और यौन सम्बन्ध भिन्न बात है।’’

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