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कहानी संग्रह >> प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेम पीयूष ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8584

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नव जीवन पत्रिका में छपने के लिए लिखी गई कहानियाँ


ब्राह्मण–इसका निश्चय करना होगा। गो-हत्या का प्रायश्चित करना पड़ेगा। कुछ हँसी-ठट्ठा है!

झींगुर–महाराज कुछ जान-बूझकर तो बाँधी नहीं।

ब्राह्मण–इससे क्या होता है? हत्या इसी तरह लगती है, कोई गऊ को मारने नहीं जाता।

झींगुर–हाँ, गउओं को खोलना-बाँधना है तो जोखिम का काम।

ब्राह्मण–शास्त्रों में इसे महापाप कहा है। गऊ की हत्या ब्राह्मण की हत्या से कम नहीं।

झींगुर–हाँ, फिर गऊ तो ठहरी ही। इसी से न इनका मान होता है।

जो माता, सो गऊ। लेकिन महाराज, चूक हो गई। कुछ ऐसा कीजिए कि थोड़े में बेचारा निपट जाए।

बुद्धू खड़ा सुन रहा था कि अनायास मेरे सिर हत्या मढ़ी जा रही है। झींगुर की कूटनीति भी समझ रहा था। मैं लाख कहूँ, मैंने बछिया नहीं बाँधी, मानेगा कौन? लोग यही कहेंगें कि प्रायश्चित से लिए ऐसा कह रहा है।

ब्राह्मण देवता का भी उसका प्रायश्चित कराने में कल्याण होता था। भला ऐसे अवसर पर कब चूकनेवाले थे? फल हुआ की बुद्धू को हत्या लग गई। ब्राह्मण भी उससे जले हुए थे। कसर निकालने की घात मिली। तीन मास का भिक्षा-दंड दिया, फिर सात तीर्थ स्थानों की यात्रा, उस पर ५॰॰ विप्रों का भोजन और ५ गउओं का दान। बुद्धू ने सुना तो बधिया बैठ गई। रोने लगा, तो दंड घटाकर दो मास कर दिया। इसके सिवा कोई रियासत न हो सकी। न कहीं अपील, न कहीं फरियाद! बेचारे को दंड स्वीकार करना पड़ा।

बुद्धू ने भेड़ें ईश्वर को सौपीं। लड़के छोटे थे। स्त्री अकेली क्या-क्या करती। गरीब जाकर द्वारों पर खड़ा होता, और मुँह छिपाए हुए कहता–गाय की बाछी दियो बनवास। भिक्षा तो मिल जाती, किंतु भिक्षा के साथ दो चार कठोर, अपमानजनक शब्द भी सुनने पड़ते। दिन को जो कुछ पाता, वही शाम को किसी पेड़ के नीचे बनाकर खा लेता, और वहीं पड़ रहता। कष्ट की तो उसे परवा न थी, भेड़ों के साथ दिन भर चलता ही था, पेड़ के नीचे सोता ही था, भोजन भी इससे कुछ ही अच्छा मिलता था, पर लज्जा थी भिक्षा माँगने की। विशेष करके जब कोई कर्कशा यह व्यंग्य कर देती थी कि रोटी कमाने का अच्छा ढंग निकाला है, तो उसे हार्दिक वेदना हो थी। पर करे क्या?

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