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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है

अधिकार-चिन्ता

टामी यों देखने में तो बहुत तगड़ा था। भूँकता, तो सुननेवालों के कानों के परदे फट जाते। डील-डौल भी ऐसा कि अँधेरी रात में उस पर गधे का भ्रम हो जाता; लेकिन उसकी श्वानोचित वीरता किसी संग्राम-क्षेत्र में प्रमाणित न होती थी। दो-चार दफे जब बाजार के लेंडियों ने चुनौती दी, तो वह उनका गर्व-मर्दन करने के लिए मैदान में आया। देखनेवालों का कहना है कि वह जब तक लड़ा, जीवट से लड़ा; नखों और दाँतों से ज्यादा चोटें उसकी दुम ने कीं निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहता, किंतु जब उस दल को कुमक मँगानी पड़ी, तो रण-शास्त्र के नियमों के अनुसार विजय का श्रेय टामी को ही देना न्यायानुकूल उचित जान पड़ता है। टामी ने उस अवसर पर कौशल से काम लिया, और दाँत निकाल दिए, जो संधि की याचना थी; किंतु तब से उसने ऐसे सन्नीति-विहीन प्रातिद्वंद्वियों के मुँह लगना उचित न समझा।

इतना शांतिप्रिय होने पर भी टामी के शत्रुओं की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जाती थी। उसके बराबर वाले तो उससे इसलिए जलते कि वह इतना भीरू क्यों हैं। बाजारी दल इसलिए जलता कि टामी के मारे घूरों पर की हड्डियाँ भी न बचने पाती थीं। वह घड़ी रात रहे उठता, और हलवाईयों की दूकानों के सामने के दोने-पत्तल, कसाई खाने के सामने की हड्डियाँ और छीछड़े चबा डालता। अतएव इतने शत्रुओं के बीच में रहकर टामी का जीवन संकटमय होता जाता था। महीनों बीत जाते, और पेट-भर भोजन न मिलता। दो-तीन बार उसे मनमाने भोजन करने की ऐसी प्रबल उत्कंठा हुई कि उसने संदिग्ध साधनों द्वारा उसे पूरी करने की चेष्ठा की; पर जब परिणाम आशा के प्रतिकूल हुआ, और स्वादिष्ट पदार्थों के बदले अरुचिकर, दुर्ग्राह्य वस्तुएँ भर-पेट खाने को मिलीं–जिससे पेट के बदले कई दिन तक पीठ में वेदना होती रही–तो उसने विवश होकर फिर सन्मार्ग का आश्रय लिया। पर डंडों से पेट चाहे भर गया हो, वह उत्कंठा शांत न हुई। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहात था, जहाँ खूब शिकार मिले; खरगोश, हिरन, भेड़ों के बच्चे मैदानों में विचर रहे हों; और उनका कोई मालिक न हो; जहाँ किसी प्रतिद्वंद्वी की गंध तक न हो; आराम करने को सघन वृक्षों की छाया हो, पीने को नदी का पवित्र जल। वहाँ मनमाना शिकार करूँ, खाऊँ और मीठी नींद सोऊँ। वहाँ चारों ओर मेरी धाक बैठ जाय; सब पर ऐसा रोब छा जाए कि मुझको अपना राजा समझने लगें और धीरे-धीरे मेरा सिक्का बैठ जाय कि किसी द्वेषी को वहाँ पैर रखने का साहस ही न हो।

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