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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


तहसीलदार– कहाँ है धन्नू अहीर? निकाल रुपये।

एक अर्दली– वह तो पहर रात रहे साहब का ढेरा लादकर चला गया।

तहसीलदार– हिसाब नहीं चुकाया और चल दिया। अच्छा नाजिरजी उसका नाम लिख लीजिए। कहाँ जाते हैं बच्चू? एक-एक पाई वसूल कर लूँगा।

प्रेमशंकर– यह लश्कर वालों की बड़ी ज्यादती है।

तहसीलदार– कुछ न पूछिए, कम्बख्त खा-खाकर चल देते हैं, बदनामी बेचारे तहसीलदार की होती है।

बिसेसर साह ने फिर ऐसा ही ब्यौरा पढ़ सुनाया। यह जयराम चपरासी का पुर्जा था। जयराम उपस्थित थे। आगे बढ़कर बोले, क्यों रे घी ऽ।। लिया था कि आधा पाव?

बिसेसर– कागद में तो ऽ।। लिखा हुआ है।

जयराम– झूठ लिखा है, सोलहों आने झूठ।

तहसीलदार– अच्छा आधा पाव का दाम दो, या कुछ भी नहीं देना चाहते?

यह झमेला नौ-दस बजे तक रहा। एक तिहाई से अधिक आदमी बिना हिसाब चुकाये ही प्रस्थान कर चुके थे। एक चौथाई से अधिक आदमी लापता हो गये। आधे आदमी मौजूद थे, लेकिन उन्हें भी हिसाब के ठीक होने में सन्देह था। ऐसे दस ही पाँच सज्जन निकले जिन्होंने खरे दाम चुका दियें हों। जब सब चिटें समाप्त हो गयीं तो बिसेसर साह ने उन्हें लाकर तहसीलदार के सामने पटक दिया और बोला– मैं और किसी को नहीं जानता, एक हुजूर को जानता हूँ और हुजूर के हुक्म से मैंने रसद दी है।

तहसीलदार– मैं क्या अपनी गिरह से दूँगा?

बिसेसर– हुजूर जैसे चाहे दें या दिला दें। २००) में यह ७०) मिले हैं। मैं टके का आदमी इतना धक्का कैसे उठाऊँगा? महाजन मेरा घर बिकवा लेगा।

तहसीलदार– अच्छी बात है, तुम्हारे दाम मिलेंगे। नाजिर जी, आप चपरासियों को लेकर जाइए,। इसके बही-खाता उठा लाइए और खुद इसकी सलाना आमदनी का हिसाब कीजिए। देखिए, अभी कलई खुली जाती है। मैं इसके सब रुपए दूँगा, पर इसी से लेकर। बच्चू, दो हजार रुपये साल नफा करते हो, उस पर एक बार १०० का घाटा हुआ तो दम निकल गया?

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