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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


कहाँ तो बिसेसर साह इतने गर्म हो रहे थे, कहाँ यह धमकी सुनते ही भीगी बिल्ली बन गये। बोले, हाँ हुजूर, सब हिसाब-किताब जाँच लें। इस गाँव में ऐसा कौन रोजगार है कि दो हजार का नफा हो जायेगा? खाने भर को मिल जाये यही बहुत है।

तहसीलदार– और यह आस-पास के देहातों का अनाज किसके घर में भरा जाता है? तुम समझते हो कि हाकिमों को खबर नहीं होती। यहाँ इतना बतला सकते हैं कि आज तुम्हारे घर में क्या पक रहा है? यह रिआयत इसी दिन के लिए करते हैं, कुछ तुम्हारी सूरत देखने के लिए नहीं।

बिसेसर साह चुपके से सरक गये। तेली-तमोली ने भी देखा कि यहाँ मिलता-जुलता तो कुछ नहीं दीखता, उल्टे और पलेथन लगने का भय है तो उन्होंने भी अपनी-अपनी राह ली। तहसीलदार ने प्रेमशंकर की ओर देखकर कहा, देखा आपने, टैक्स के नाम में इन सबों की जान निकल जाती है। मैं जानता हूँ कि इसकी सालाना आमदानी ज्यादा-से-ज्यादा १००० होगी। लेकिन चाहे इस तरह कितना ही नुकसान बरदाश्त कर लें, अपने बही-खाते न दिखायेंगे। यह इनकी आदत है।

प्रेमशंकर– खैर, यह तो अपनी चाल-बाजी की बदौलत नुकसान से बच गया, मगर और बेचारे तो मुफ्त में पिस गये, उस पर जलील हुए वह अलग।

तहसीलदार– जनाब, इसकी दवा मेरे पास नहीं है। जब तक कौम को आप लोग एक सिरे से जगा न देंगे, इस तरह के हथकण्डों का बन्द होना मुश्किल है। जहाँ दिलों में इतनी खुदगरजी समाई हुई है और जहाँ रिआया इतनी कच्ची वहाँ किसी तरह की इसलाह नहीं हो सकती। (मुस्कुराकर) हम लोग एक तौर पर आपके मददगार हैं। रियाया को सताकर, पीसकर मजबूत बनाते हैं और आप जैसे कौमी हमदर्दों के लिए मैदान साफ करते हैं।

२६

प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घिर आते थे। मच्छर और मलेरिया का प्रकोप था, नीम की छाल और गिलोय की बाहर थी। चरावर में दूर तक हरी-हरी घास लहरा रही थी। अभी किसी को उसे काटने का अवकाश न मिलता था। इसी समय बिन्दा महाराज और कर्तारसिंह लाठी कंधे पर रखे एक वृक्ष के नीचे आकर खड़े हो गये। कर्तार ने कहा, इस बुड्ढे को खुचड़ सूझती रहती है। भला बताओ, जो यहाँ मवेसी न चरने पायेंगे तो कहाँ जायेंगे और जो लोग सदा से चराते आये हैं, वे मानेंगे कैसे? एक बेर कोई इसकी मरम्मत कर देता तो यह आदत छूट जाती।

बिन्दा– हमका तो ई मौजा मा तीस बरसें होय गईं। तब से कारिन्दे पर चरावर कोऊँ न रोका। गाँव-भर के मवेशी मजे से चरत रहे।

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