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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


कर्तार– उन्हें हुक्म देते क्या लगता है! जायगी तो हमारे माथे।

बिन्दा– हमार जी तो अस ऊब गया कि मन करत है छोड़-छाड़ के घर चला जाई। सुनित है मलिक अवैया हैं। बस, एक बेर उनसे भेंट होय जाय और अपने घर के राह लेई।

कर्तार– फ़ैजू दिन भर खाट पर पड़ा रहता है, उससे कुछ नहीं कहते। जब देखो, कर्तार को ही दौड़ाते हैं, मानो कर्तार उनके बाप का गुलाम है। और देखो, पीपल के नीचे जहाँ हम-तुम जल चढ़ाते हैं। वहाँ नमाज पढ़ते हैं; वहीं दतुअन-कुल्ली करते हैं, वहीं नहाते हैं। बताओं, धरम नष्ट भया की रहा? आप तो रोज कुरान पढ़ते हैं और मैं रामायण पढ़ने लगता हूँ तो कैसे डाँट के कहते हैं, क्या शोर मचा रखा है। अबकी असाढ़ में ३०० रु. नजराना मिला; मुझे एक पाई भेंट न हुई।

बिन्दा– हमका तो एक रुपया मिला रहै।

कर्तार– यह भी कोई मिलने में मिलना है! और सब कहीं चपरासियों को रुपये में आठ आने मिलते हैं। यह कुछ न दें तो चार आने तो दें, । लेना-देना दूर रहा उस पर आठों पहर सिर पर सवार। कल तुम कहीं गये थे। मुझसे बोले, कर्तार एक घड़ा पानी तो खींच लो। मैंने तुरन्त जवाब दिया, इसके नौकर नहीं है, फौजदारी करा लो, लाठी चलवा लो, अगर कदम पीछे हटायें तो कहो, लेकिन चिलम भरना, पानी खींचना हमारा काम नहीं है। इस पर आँखें बहुत लाल पीली की। एक दिन पीपल के नीचे दाली मूरतों को देखकर बोले, यह क्या ईंट-पत्थर जमा कर रखे हैं। मैंने तो ठान लिया है कि जहाँ अबकी कोई नजराना लेकर आया और मैंने हाथ पकड़ा कि चार आने इधर रखिए। जरा भी नरम-गरम हुए, मुँह से लाम-काफ निकाली और मैंने गरदन दबायी। फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा। फैजू बोले, तो उनसे भी मैं समझूँगा। खूब- पड़े-पड़े रोटी-गोस उड़ा रहे हैं, सब निकाल दूँगा... वह देखो मवेशी इधर आ रहे हैं। बलराज तो नहीं है न?

बिन्दा– होबै करी तो कौनो डर हौ। अबकी अस जर आवा है कि ठठरी होय गवा है।

कर्तार– बड़े कस-बल का पट्ठा है। सुक्खू चौखरी का तालाब जहाँ बन रहा था वहीं एक दिन अखाड़े में उससे मेरी एक पकड़ हो गयी थी। मैं उसे पहले ही झपाटे में नीचे लाया; लेकिन ऐसा तड़प के नीचे से निकला कि झोकों में आ गया। सँभल ही न सका। बदन नहीं, लोहा है।

बिन्दा– निगाह का बड़ा सच्चा जवान है। क्या मजा कि कोऊ बिटिया-महरिया की ओर आँखें उठाके ताके।

कर्तार– वह देखो, फैजू और गौस खाँ भी इधर ही आ रहे हैं। आज कुशल नहीं दीखती।

बिन्दा– यह गायें-भैंसें तो मनोहर के जान पड़ते हैं। बिलासी लीने आवत है।

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