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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


कर्तार ने उच्च स्वर में कहा, यह कौन मवेशी लिये आता है? यहाँ से निकाल ले जाव, सरकारी हुक्म नहीं है। इतने में बिलासी निकट आ गयी और बिन्दा महाराज की ओर निश्चिंत भाव से देखकर बोली, सुनत हौ महाराज ठाकुर की बात!

कर्तार– सरकारी हुक्म हो गया कि अब कोई जानवर यहाँ न चरने पाये।

बिलासी– कौन-सा सरकारी हुकुम? सरकार की जमीन नहीं है। महाराज, तुम्हें तो यहाँ एक युग बीत गया, कभी किसी ने चराई भी मना किया है?

बिन्दा– उस पुरानी बातन का न गाओ, अब ऐसे हुकुम भवा है। जानवर का और कौनो कैत ले जाव, नाहीं तो वह गौस खाँ आवत है, सभन का पकड़ के कानी हौद पठै दैहैं?

बिलासी– कानी हौद कैसे पठै दैहैं, कोई राहजनी है? हमारे मवेशी सदा से यहाँ चरते आये हैं और सदा यहीं चरेंगे। अच्छा सरकारी हुकुम है, आज कह दिया चरावर के छोड़ दो, कल कहेंगे अपना घर छोड़ो, पेड़ तले जाकर रहो। ऐसा कोई अन्धेर है!

इतने में गौस खाँ और फैजू भी आ पहुँचे। बिलासी के अन्तिम शब्द खाँ साहब के कान में पड़े। डपटकर बोले, अपने जानवरों को फौरन निकाल ले जा, वरना मवेशीखाना भेज दूँगा।

बिलासी– क्यों निकाल ले जाऊँ चरावर सारे गाँव का है। जब सारा गाँव छोड़ देगा तो हम भी छोड़ देंगे।

गौस खाँ– जानवरों को ले जाती है कि खड़ी-खड़ी कानून बघारती है?

बिलासी– तुम तो खाँ साहब, ऐसी घुड़की जमा रहे हो, जैसे मैं तुम्हारा दिया खाती हूँ।’

गौस खाँ– फैजू जबाँदराज औरत यों न मानेगी। घेर लो इसके जानवरों को और मवेशीखाने हाँक ले जाओ।

फैजू तो मवेशियों की तरफ लपका, पर कर्तार और बिन्दा महाराज धर्मसंकट में पड़े खड़े रहे। खाँ साहब ने उन्हे ललकारा- खड़े मुँह क्या देख रहे हो? घेर लो जानवरों को और हाँक ले जाओ। सरकारी हुक्म है या कोई मजाक है।

अब कर्तार और बिन्दा महाराज भी उठे और जानवरों को चारों ओर से घेरने का आयोजन करने लगे। मवेशियों ने चौकन्नी आँखों से देखा, कान खड़े किये और इधर-उधर बिदकने लगे। परिस्थिति को ताड़ गये। बिलासी ने कहा, मैं कहती हूँ इन्हें मत घेरो, नहीं तो ठीक न होगा।

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