नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
ज्ञानी– (आंखें पोंछ कर) बेटा, क्या अभी तुमने भी भोजन नहीं किया?
अचल– अभी चाचा जी तो आये ही नहीं। आज उनके कमरे में जाते हुए न जाने क्यों भय लगता है। ऐसा मालूम होता है कि वह कहीं छिपे बैठे हैं और दिखायी नहीं दे। उनकी छाया कमरे में छिपी हुई जान पड़ती है।
सबल– (मन में) इसे देखकर चित्त कातर हो रहा है। इसे फूलते-फलते देखना मेरे जीवन की सबसे बड़ी लालसा थी। कैसा चतुर, सुशील हंसमुख लड़का है। चेहरे से प्रतिभा टपक पड़ती है। मन में क्या-क्या इरादे थे। इसे जर्मनी भेजना चाहता था। संसार-यात्रा कराके इसकी शिक्षा को समाप्त कराना चाहता था। इसकी शक्तियों का पूरा विकास करना चाहता था, पर सारी आशाएं धूल में मिल गयीं। (अचल की गोद में लेकर) बेटा, तुम जा कर भोजन कर लो, मैं तुम्हारे चाचा जी को देखने जाता हूं।
अचल– आप लोग आ जायेंगे तो साथ ही मैं भी खाऊंगा। अभी भूख नहीं है।
सबल– और जो मैं शाम तक न आऊं?
अचल– आधी रात तक आपकी राह देख कर तब खा लूंगा, मगर आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं?
सबल– कुछ नहीं यों ही। अच्छा बताओ, मैं आज मर जाऊं तो तुम क्या करोगे?
ज्ञानी– कैसे असगुन मुंह से निकालते हो!
अचल– (सबलसिंह की गर्दन में हाथ डाल कर) आप तो अभी जवान हैं, स्वस्थ हैं, ऐसी बातें क्यों सोचते हैं?
सबल– कुछ नहीं, तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूं।
अचल– (सबल की गोद में सिर रख कर) नहीं, कोई और ही कारण है। (रोकर) बाबू जी, मुझसे छिपाइये न, बताइए, आप क्यों इतने उदास हैं, अम्मा क्यों रो रहीं है? मुझे भय लग रहा है। जिधर देखता हूं उधर ही बेरौनकी-सी मालूम होती है, जैसे पिंजरे में से चिड़ियां उड़ गयी हो।
कई सिपाही और चौकीदार बंदूकें और लाठियां लिए हाते में घुस आते हैं, और थानेदार तथा इन्स्पेक्टर और सुपरिंटेंडेंट घोड़ी से उतर कर बरामदे में खड़े हो जाते हैं, ज्ञानी भीतर चली जाती है, और सबल बाहर निकल आते हैं।
इन्स्पेक्टर– ठाकुर साहब, आपकी खानातलाशी होगी। यह वारंट है।
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