उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
कुंवर साहब– इसका प्रायश्चित्त यही है कि आप मित्रों से अपनी मातृभाषा का व्यवहार किया कीजिए।
डॉक्टर– आप राजा लोग है, आपसे यह प्रण निभ सकता है। हमसे इसका पालन क्यों कर हो सकता है? अंग्रेजी तो हमारी Lingua Franca (सार्वदेशिक भाषा) हो रही है।
कुंवर साहब– उसे आप ही लोगों ने तो यह गौरव प्रदान कर रखा है। फारस और काबुल के मूर्ख सिपाहियों और हिंदू व्यापारियों के समागम से उर्दू जैसी भाषा का प्रादुर्भाव हो गया। अगर हमारे देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों के विद्वज्जन परस्पर अपनी ही भाषा में संभाषण करते, तो अब तक कभी की सार्वदेशिक भाषा बन गई होती। जब तक आप जैसे विद्वान् लोग अंग्रेजी के भक्त बने रहेंगे, कभी एक सार्वदेशिक भाषा का जन्म न होगा। मगर यह काम कष्टसाध्य है, इसे कौन करे? यहां तो लोगों को अंग्रेजी जैसी समुन्नत भाषा मिल गई, सब उसी के हाथों बिक गए। मेरी समझ में नहीं आता कि अंग्रेजी भाषा बोलने और लिखने में लोग क्यों अपना गौरव समझते हैं। मैंने भी अंग्रेजी पढ़ी है। दो साल विलायत रह आया हूं और आपके कितने ही अंग्रेजी के धुरंधर पंडितों से अच्छी अंग्रेजी लिख और बोल सकता हूं, पर मुझे उससे ऐसी घृणा होती है, जैसे किसी अंग्रेज के उतारे हुए कपड़े पहनने से।
पद्मसिंह ने इन वादों में कोई भाग न लिया। ज्यों ही अवसर मिला, उन्होंने विट्ठलदास को बुलाया और उन्हें एकांत में ले जाकर शान्ता का पत्र दिखाया।
विट्ठलदास ने कहा– अब आप क्या करना चाहते है?
पद्मसिंह– मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। जब से यह पत्र मिला है, ऐसा मालूम होता है, मानो नदी में बहा जाता हूं।
विट्ठलदास– कुछ-न-कुछ करना तो पड़ेगा।
पद्मसिंह– क्या करूं।
विट्ठलदास– शांता को बुला लाइए।
पद्मसिंह– सारे घर से नाता टूट जाएगा।
विट्ठलदास– टूट जाए। कर्त्तव्य के सामने किसी का क्या भय?
पद्मसिंह– यह तो आप ठीक कहते हैं, पर मुझसे इतनी सामर्थ्य नहीं। भैया को मैं अप्रसन्न करने का साहस नहीं कर सकता।
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