लोगों की राय

उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

361 पाठक हैं

यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


विट्ठलदास– अपने यहां न रखिए, विधवाश्रम में रख दीजिए, यह तो कठिन नहीं।

पद्मसिंह– हां, यह आपने अच्छा उपाय बताया। मुझे इतना भी न सूझा था। कठिनाई में मेरी बुद्धि जैसे चरने चली जाती है।

विट्ठलदास– लेकिन जाना आपको पड़ेगा।

पद्मसिंह– यह क्यों, आपके जाने से काम न चलेगा?

विट्ठलदास– भला, उमानाथ उसे मेरे साथ क्यों भेजने लगे?

पद्मसिंह– इसमें उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है?

विट्ठलदास– आप तो कभी-कभी बच्चों-सी बातें करने लगते हैं। शान्ता उनकी बेटी न सही, पर इस समय वह उसके पिता हैं। वह उसे एक अपरिचित मनुष्य के साथ क्यों आने देंगे?

पद्मसिंह– भाई साहब, आप नाराज न हों, मैं वास्तव में कुछ बौखला गया हूं। लेकिन मेरे चलने में तो बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाएगा। भैया सुनेंगें तो वह मुझे मार ही डालेंगे। जनवासे में उन्होंने जो धक्का लगाया था, वह अभी तक मुझे याद है।

विट्ठलदास– अच्छा, आप न चलिए, मैं ही चला जाऊंगा। लेकिन उमानाथ के नाम एक पत्र देने में तो आपको कोई बाधा नहीं?

पद्मसिंह– आप कहेंगे कि यह निरा मिट्टी का लौंदा है, पर मुझमें उतना साहस भी नहीं है। ऐसी युक्ति बताइए कि कोई अवसर पड़े, तो मैं साफ निकल जाऊं। भाई साहब को मुझ पर दोषारोपण का मौका न मिले।

विट्ठलदास ने झुंझलाकर उत्तर दिया– मुझे ऐसी युक्ति नहीं सूझती। भलेमानुस आप भी अपने को मनुष्य कहेंगे। वहां तो वह धुआंधार व्याख्यान देते हैं, ऐसे उच्च भावों से भरा हुआ, मानों मुक्तात्मा हैं और कहां यह भीरुता।

पद्मसिंह ने लज्जित होकर कहा– इस समय जो चाहे कह लीजिए, पर इस काम का सारा भार आपके ऊपर रहेगा।

विट्ठलदास– अच्छा, एक तार तो दे दीजिएगा, या इतना भी न होगा?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book