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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


पद्मसिंह– (उछलकर) हां, मैं तार दे दूंगा। मैं तो जानता था कि आप राह निकालेंगे। अब अगर कोई बात आ पड़ी, तो मैं कह दूंगा कि मैंने तार नहीं दिया, किसी ने मेरे नाम से दे दिया होगा– मगर एक ही क्षण में उनका विचार पलट गया। अपनी आत्मभीरुता पर लज्जा आई। मन में सोचा, भाई साहब ऐसे मूर्ख नहीं है कि इस धर्मकार्य के लिए मुझसे अप्रसन्न हों और यदि हो भी जाएं, तो मुझे इसकी चिंता न करनी चाहिए।

विट्ठलदास– तो आज ही तार दे दीजिए।

पद्मसिंह– लेकिन यह सरासर जालसाजी होगी।

विट्ठलदास– हां, होगी तो, आप ही समझिए।

पद्मसिंह– मैं चलूं तो कैसा हो?

विट्ठलदास– बहुत ही उत्तम, सारा काम ही बन जाए।

पद्मसिंह– अच्छी बात है, मैं और आप दोनों चलें।

विट्ठलदास– तो कब?

पद्मसिंह– बस, आज तार देता हूं कि हमलोग शान्ता को विदा कराने आ रहे हैं, परसों संध्या की गाड़ी से चले चलें।

विट्ठलदास– निश्चय हो गया?

पद्मसिंह– हां, निश्चय हो गया। आप मेरा कान पकड़कर ले जाइएगा।

विट्ठलदास ने अपने सरल-हृदय मित्र की ओर प्रशंसा की दृष्टि से देखा और दोनों मनुष्य जलतरंग सुनने जा बैठे, जिसकी मनोहर ध्वनि आकाश में गूंज रही थी।

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