उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
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जब हम स्वास्थ्य-लाभ करने के लिए किसी पहाड़ पर जाते हैं, तो इस बात का विशेष यत्न करते हैं कि हमसे कोई कुपथ्य न हो। नियमित रूप से व्यायाम करते है, आरोग्य का उद्देश्य सदैव हमारे सामने रहता है। सुमन विधवाश्रम में आत्मिक स्वास्थ्य लाभ करने गई थी और अभीष्ट को एक क्षण के लिए भी न भूलती थी, वह अपनी बहनों की सेवा में तत्पर रहती और धार्मिक पुस्तकें पढ़ती। देवोपासना, स्नानादि में उसके व्यथित हृदय को शांति मिलती थी।
विट्ठलदास ने अमोला के समाचार उससे छिपा रखे थे, लेकिन जब शान्ता को आश्रम में रखने का विचार निश्चित हो गया, तब उन्होंने सुमन को इसके लिए तैयार करना उचित समझा। कुंवर साहब के यहां से आकर उसे सारा समाचार कह सुनाया।
आश्रम में सन्नाटा छाया हुआ था। रात बहुत बीत चुकी थी, पर सुमन को किसी भांति नींद न आती थी। उसे आज अपने अविचार का यथार्थ स्वरूप दिखलाई दे रहा था। जिस प्रकार कोई रोगी क्लोरोफार्म लेने के पश्चात् होश में आकर अपने चीरे फोड़े के गहरे घाव को देखता है और पीड़ा तथा भय से मूर्छित हो जाता है, वही दशा इस समय सुमन की थी। पिता, माता और बहन तीनों उसे अपने सामने बैठे हुए मालूम होते थे। माता लज्जा तथा दुख से सिर झुकाए उदास हो रही थी, पिता खड़े उसकी ओर क्रोधोन्मत्त, रक्तवर्ण नेत्रों से ताक रहे थे और शान्ता शोक, नैराश्य और तिरस्कार की मूर्ति बनी हुई कभी धरती की ओर ताकती थी, कभी आकाश की ओर।
सुमन का चित्त व्यग्र हो उठा। वह चारपाई से उठी और बलपूर्वक अपना सिर पक्की जमीन पर पटकने लगी। वह अपनी ही दृष्टि में एक पिशाचिनी मालूम होती थी। सिर से चोट लगने से उसे चक्कर आ गया। एक क्षण के बाद उसे चेत हुआ, माथे से रुधिर बह रहा था। उसने धीरे से कमरा खोला। आंगन में अंधेरा छाया हुआ था। वह लपकी हुई फाटक पर आई, पर वह बंद था। उसने ताले तो कई बार हिलाया, पर वह न खुला, बुड्ढा चौकीदार फाटक से जरा हटकर सो रहा था। सुमन धीरे-धीरे उसके पास आई और उसके सिर के नीचे कुंजी टटोलने लगी। चौकीदार हकबकाकर उठ बैठा और ‘चोर! चोर!’चिल्लाने लगा। सुमन वहां से भागी और अपने कमरे में आकर किवाड़ बंद कर लिए।
किंतु सवेरे के पवन के सदृश चित्त की प्रचंड व्यग्रता भी शीघ्र ही शांत हो जाती है। सुमन खूब बिलखकर रोई। हाय! मुझ जैसी डाइन संसार में न होगी। मैंने विलास-तृष्णा की धुन में अपने कुल का सर्वनाश कर दिया, मैं अपने पिता की घातिका हूं, मैंने शान्ता के गले पर छुरी चलाई है, मैं उसे यह कालिमापूर्ण मुंह कैसे दिखाऊंगी? उसके सम्मुख कैसे ताकूंगी? पिताजी ने जिस समय यह बात सुनी होगी, उन्हें कितना दुख हुआ होगा। यह सोचकर वह फिर रोने लगी। यह वेदना उसे अपने और कष्टों से असह्य मालूम होती थी। अगर यह बात उसके पिता से कहने के बदले मदनसिंह उसे कोल्हू में पेर देते, हाथी के पैरों तले कुचलवा देते, आग में झोक देते, कुत्तों से नुचवा देते तो वह जरा भी चूं न करती। अगर विलास की इच्छा और निर्दय अपमान ने उसकी लज्जा-शक्ति को शिथिल न कर दिया होता, तो वह कदापि घर से बाहर पांव न निकालती। वह अपने पति के हाथों कड़ी-से-कड़ी यातना सहती और घर में पड़ी रहती। घर से निकलते समय उसे यह ख्याल भी न था कि मुझे कभी दालमंडी में बैठना पड़ेगा। वह बिना कुछ सोचे-समझे घर से निकल खड़ी हुई। उस शोक और नैराश्य की अवस्था में वह भूल गई कि मेरे पिता हैं, बहन है।
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