उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
बहुत दिनों के वियोग ने उनका स्मरण ही न रखा। वह अपने को संसार में अकेली असहाय समझती थी। वह समझती थी, मैं किसी दूसरे देश में हूं और मैं जो कुछ करूंगी वह सब गुप्त ही रहेगा। पर अब ऐसा संयोग आ पड़ा कि वह अपने को आत्मीय सूत्र से बंधी हुई पाती थी। जिन्हें वह भूल चुकी थी, वह फिर उसके सामने आ गए और आत्माओं का स्पर्श होते ही लज्जा का प्रकाश आलोकित होने लगा।
सुमन ने शेष रात मानसिक विफलता की दशा में काटी। चार बजने पर वह गंगा-स्नान को चली। वह बहुधा अकेले ही जाया करती थी, इसलिए चौकीदार ने कुछ पूछताछ न की।
सुमन गंगातट पर पहुंच कर इधर-उधर देखने लगी कि कोई है तो नहीं। वह आज गंगा में नहाने नहीं, डूबने आई थी। उसे कोई शंका, भय या घबराहट नहीं थी। कल किसी समय शान्ता आश्रम में आ जाएगी। उसे मुंह दिखाने की अपेक्षा गंगा की गोद में मग्न हो जाना कितना सहज था।
अकस्मात् उसने देखा कि कोई आदमी उसकी तरफ चला आ रहा है। अभी कुछ-कुछ अंधेरा था, पर सुमन को इतना मालूम हो गया कि कोई साधु है। सुमन की अंगुली में एक अंगूठी थी। उसने उसे साधु को दान करने का निश्चय किया, लेकिन वह ज्यों ही समीप आया, सुमन ने भय, घृणा और लज्जा से अपना मुंह छिपा लिया। यह गजाधर थे।
सुमन खड़ी थी और गजाधर उसके पैरों पर गिर पड़े और रुद्ध कंठ से बोले– मेरा अपराध क्षमा करो!
सुमन पीछे हट गई। उसकी आंखों के सामने अपने अपमान का दृश्य खिंच गया। घाव हरा हो गया। उसके जी में आया कि इसे फटकारूं, कहूं कि तुम मेरे पिता के घातक, मेरे जीवन का नाश करने वाले हो, पर गजाधर की अनुकंपापूर्ण उदारता, कुछ उसका साधुवेश और कुछ विराग भाव ने, जो प्राणाघात का संकल्प कर लेने के बाद उदित हो जाता है, उसे द्रवित कर दिया। उसके नयन सजल हो गए, करुण स्वर से बोली– तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। जो कुछ हुआ, वह सब मेरे कर्मों का फल था।
गजाधर– नहीं सुमन, ऐसा मत कहो। सब मेरी मूर्खता और अज्ञानता का फल है। मैंने सोचा था कि उसका प्रायश्चित्त कर सकूंगा, पर अपने अत्याचार का भीषण परिणाम देखकर मुझे विदित हो रहा है कि उसका प्रायश्चित नहीं हो सकता। मैंने इन्हीं आंखों से तुम्हारे पूज्य पिता को गंगा में लुप्त होते देखा है।
सुमन ने उत्सुक-भाव से पूछा– क्या तुमने पिताजी को डूबते देखा है?
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