उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
गजाधर– हां, सुमन, डूबते देखा है। मैं रात को अमोला जा रहा था, मार्ग में वह मुझे मिल गए। मुझे अर्द्धरात्रि के समय गंगा की ओर जाते देखकर संदेह हुआ। उन्हें अपने स्थान पर लाया और उनके हृदय को शांत करने की चेष्टा की। फिर यह समझकर कि मेरा मनोरथ पूरा हो गया, मैं सो गया। थोड़ी देर में जब उठा, तो उन्हें वहां न देखा। तुंरत गंगातट की ओर दौड़ा। उस समय मैंने सुना कि वह मुझे पुकार रहे हैं, पर जब तक मैं निश्चय कर सकूं कि वह कहां हैं, उन्हें निर्दयी लहरों ने ग्रस लिया। वह दुर्लभ आत्मा मेरी आंखों के सामने स्वर्गधाम को सिधारी। तब तक मुझे मालूम न था कि मेरा पाप इतना घोरतम है, वह अक्षम्य है, अदंड्य है। मालूम नहीं, ईश्वर के यहां मेरी क्या गति होगी?
गजाधर की आत्मवेदना ने सुमन के हृदय पर वही काम किया, जो साबुन मैल के साथ करता है। उसने जमे हुए मालिन्य को काटकर ऊपर कर दिया। वह संचित भाव ऊपर आ गए, जिन्हें वह गुप्त रखना चाहती थी। बोली– परमात्मा ने तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान कर दी है। तुम अपनी सुकीर्ति से चाहे कुछ कर भी लो, पर मेरी क्या गति होगी, मैं तो दोनों लोकों से गई। हाय! मेरी विलास-तृष्णा ने मुझे कहीं का न रखा। अब क्या छिपाऊं, तुम्हारे दारिद्रय और इससे अधिक तुम्हारे प्रेम-विहीन व्यवहार ने मुझमें असंतोष का अंकुर जमा दिया और चारों ओर पाप-जीवन का मान-मर्यादा, सुख-विलास देखकर इस अंकुर ने बढ़के भटकटैए के सदृश सारे हृदय को छा लिया। उस समय एक फफोले को फोड़ने के लिए जरा-सी ठेस बहुत थी। तुम्हारी नम्रता, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी सहानुभूति, तुम्हारी उदारता उस फफोले पर फाहे का काम देती, पर तुमने उसे मसल दिया, मैं पीड़ा से व्याकुल, संज्ञाहीन हो गई। तुम्हारे उस पाशविक, पैशाचिक व्यवहार का जब स्मरण होता है, तो हृदय में एक ज्वाला-सी दहकने लगती है और अंतःकरण से तुम्हारे प्रति शाप निकल आता है। यह मेरा अंतिम समय है, एक क्षण में यह पापमय शरीर गंगा में डूब जाएगा, पिताजी की शरण में पहुंच जाऊंगी, इसलिए ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि तुम्हारे अपराधों को क्षमा करें।
गजाधर ने चिंतित स्वर में कहा– सुमन, यदि प्राण देने से पापों का प्रायश्चित हो जाता, तो मैं अब तक कभी का प्राण दे चुका होता।
सुमन– कम-से-कम दुखों का अंत हो जाएगा।
गजाधर– हां, तुम्हारे दुखों का अंत हो सकता है, पर उनके दुखों का अंत न होगा, जो तुम्हारे दुखों से दुखी हो रहे हैं। तुम्हारे माता-पिता शरीर बंधन से मुक्त हो गए हैं, लेकिन उनकी आत्माएं अपनी विदेहावस्था में तुम्हारे पास विचर रही हैं। वह सभी तुम्हारे सुख से सुखी और दुख से दुखी होंगे। सोच लो कि प्राणाघात करके उनको दुख पहुंचाओगी या अपना पुनरुद्धार करके उन्हें सुख और शांति दोगी? पश्चाताप अंतिम चेतावनी है, जो हमें आत्म-सुधार के निमित्त ईश्वर की ओर से मिलती है। यदि इसका अभिप्राय न समझकर हम शोकावस्था में अपने प्राणों का अंत कर दें, तो मानो हमने आत्मोद्धार की इस अंतिम प्रेरणा को भी निष्फल कर दिया। यह भी सोचो कि तुम्हारे न रहने से उस अबला शान्ता की क्या गति होगी, जिसने अभी संसार के ऊंच-नीच का कुछ अनुभव नहीं किया है। तुम्हारे सिवा उसका संसार में कौन है? उमानाथ का हाल तुम जानती ही हो, वह उसका निर्वाह नहीं कर सकते। उनमें दया है, पर लोभ उससे अधिक है। कभी-न-कभी वह उससे अवश्य ही अपना गला छु़ड़ा लेंगे। उस समय वह किसकी होकर रहेगी?
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