उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
सुमन को गजाधर के इस कथन में सच्ची संवेदना की झलक दिखाई दी। उसने उनकी ओर विनम्रतासूचक दृष्टि से देखकर कहा– शान्ता से मिलने की अपेक्षा मुझे प्राण देना सहज प्रतीत होता है। कई दिन हुए, उसने पद्मसिंह के पास एक पत्र भेजा था। उमानाथ उसका कहीं और विवाह करना चाहते हैं। वह इसे स्वीकार नहीं करती।
गजाधर– वह देवी है।
सुमन– शर्माजी बेचारे और क्या करते, उन्होंने निश्चय किया है कि उसे बुलाकर आश्रम में रखें। अगर उसके भाई मान जाएंगे, तब तो अच्छा ही है, नहीं तो उस दुखिया को न जाने कितने दिनों तक आश्रम में रहना पड़ेगा। वह कल यहां आ जाएगी। उसके सम्मुख जाने का भय, उससे आंखें मिलाने की लज्जा मुझे मारे डालती है। जब वह तिरस्कार की आंखों से मुझे देखेगी, उस समय मैं क्या करूंगी और जो कहीं उसने घृणावश मुझसे गले मिलने में संकोच किया, तब तो मैं उसी क्षण विष खा लूंगी। इस दुर्गति से तो प्राण देना ही अच्छा है।
गजाधर ने सुमन को श्रद्धा भाव से देखा उन्हें अनुभव हुआ कि ऐसी अवस्था में मैं भी वही करता, जो सुमन करना चाहती है। बोले– सुमन, तुम्हारे यह विचार यथार्थ हैं, पर तुम्हारे हृदय पर चाहे जो कुछ बीते, शान्ता को हित के लिए तुम्हें सब कुछ सहना पड़ेगा। तुमसे उसका जितना कल्याण हो सकता है, उतना अन्य किसी से नहीं हो सकता। अब तक तुम अपने लिए जीती थीं, अब दूसरों के लिए जियो।
यह कह, गजाधर जिधर से आए थे, उधर ही चले गए। सुमन गंगाजी के तट पर देर तक खड़ी उनकी बातों पर विचार करती रही, फिर स्नान करके आश्रम की ओर चली, जैसे कोई मनुष्य समर में परास्त होकर घर की ओर जाता है।
४२
शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता का हृदय थरथराने लगता था। वह दिन में कई बार देवी के चबूतरे पर जाती और नाना प्रकार की मनौतियां करती। कभी शिवजी के मंदिर में जाती और उनसे अपनी मनोकामना कहती। सदन एक क्षण के लिए भी उनके ध्यान से न उतरता। वह उसकी मूर्ति को हृदय-नेत्रों के सामने बैठाकर उससे कर जोड़कर कहती– प्राणनाथ, मुझे क्यों नहीं अपनाते? लोकनिंदा के भय से! हाय, मेरी जान इतनी सस्ती है कि इन दामों बिके! तुम मुझे त्याग रहे हो, आग में झोंक रहे हो, केवल इस अपराध के लिए कि मैं सुमन की बहन हूं, यही न्याय है। कहीं तुम मुझे मिल जाते, मैं तुम्हें पकड़ पाती, फिर देखती कि मुझसे कैसे भागते हो? तुम पत्थर नहीं हो कि मेरे आंसुओं से न पसीजते। तुम अपनी आंखों से एक बार मेरी दशा देख लेते, तो फिर तुमसे न रहा जाता। हां, तुमसे कदापि न रहा जाता। तुम्हारा विशाल हृदय करुणाशून्य नहीं हो सकता। क्या करूं, तुम्हें अपने चित्त की दशा कैसे दिखाऊं?
|