उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
चौथे दिन प्रातःकाल पद्मसिंह का पत्र मिला। शान्ता भयभीत हो गई। उसकी प्रेमाभिलाषाएं शिथिल पड़ गईं। अपनी भावी दशा की शंकाओं ने चित्त को अशांत कर दिया।
लेकिन उमानाथ फूले नहीं समाए। बाजे का प्रबंध किया। सवारियां एकत्रित कीं, गांव-भर में निमंत्रण भेजे, मेहमानों के लिए चौपाल में फर्श आदि बिछवा दिए। गांव के लोग चकित थे, यह कैसा गौना है? विवाह तो हुआ ही नहीं, गौना कैसा? वह समझते थे कि उमानाथ ने कोई-न-कोई चाल खेली है। एक ही धूर्त है। निर्दिष्ट समय पर उमानाथ स्टेशन गए और बाजे बजवाते हुए मेहमानों को अपने घर लाए। चौपाल में उन्हें ठहराया। केवल तीन आदमी थे। पद्मसिंह, विट्ठलदास और एक नौकर।
दूसरे दिन संध्या-समय विदाई का मुहूर्त था। तीसरा पहर हो गया, किंतु उमानाथ के घर में गांव की कोई स्त्री नहीं दिखलाई देती। वह बार-बार अंदर आते हैं, तेवर बदलते हैं, दिवालों को धमकाकर कहते हैं, मैं एक-एक को देख लूंगा। जाह्नवी से बिगड़कर कहते हैं कि मैं सबकी खबर लूंगा। लेकिन वे धमकियां, जो कभी नंबरदारों को कंपायमान कर दिया करती थीं, आज किसी पर असर नहीं करती। बिरादरी अनुचित दबाव नहीं मानती। घमंडियों का सिर नीचा करने के लिए वह ऐसे ही अवसरों की ताक में रहती है।
संध्या हुई। कहारों ने पालकी द्वार पर लगा दी। जाह्नवी और शान्ता गले मिलकर खूब रोईं।
शान्ता का हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। इस घर में उसे जो-जो कष्ट उठाने पड़े थे, वह इस समय भूल गए थे। इन लोगों से फिर भेंट न होगी, इस घर के फिर दर्शन न होंगे, इनसे सदैव के लिए नाता टूटता है, यह सोचकर उसका हृदय विदीर्ण हुआ जाता था। जाह्नवी का हृदय भी दया से भरा हुआ था। इस माता-पिता विहीन बालिका को हमने बहुत कष्ट दिए, यह सोचकर वह अपने आंसुओं को न रोक सकती थी। दोनों हृदयों में सच्चे, निर्मल, कोमल भावों की तरंगें उठ रही थीं।
उमानाथ घर में आए, तो शान्ता उनके पैरों से लिपट गई और विनय करती हुई कहने लगी– तुम्हीं मेरे पिता हो। अपनी बेटी को भूल न जाना। मेरी बहनों को गहने-कपड़े देना, होली और तीज में उन्हें बुलाया, पर मैं तुम्हारे दो अक्षरों के पत्र को ही अपना धन्य भाग समझूंगी। उमानाथ ने उसको संबोधित करते हुए कहा– बेटी, जैसी मेरी और दो बेटियां हैं, वैसी ही तुम भी हो। परमात्मा तुम्हें सदा सुखी रखे। यह कहकर रोने लगे।
संध्या का समय था, मुन्नी गाय घर में आई, तो शान्ता उसके गले लिपटकर रोने लगी। उसने तीन-चार वर्ष उस गाय की सेवा की थी। अब वह किसे भूसी लेकर दौड़ेगी? किसके गले में काले डोरे में कौड़ियां गूंथकर पहनाएगी? मुन्नी सिर झुकाए उसके हाथों को चाटती थी। उसका वियोग-दुख उसकी आंखों से झलक रहा था।
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