उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
जाह्नवी ने शान्ता को लाकर पालकी में बैठा दिया। कहारों ने पालकी उठाई। शान्ता को ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह अथाह सागर में बही जा रही है।
गांव की स्त्रियां अपने द्वारों पर खड़ी पालकी को देखती थीं और रोती थीं।
उमानाथ स्टेशन तक पहुंचाने आए। चलते समय अपनी पगड़ी उतारकर उन्होंने पद्मसिंह के पैरो पर रख दी। पद्मसिंह ने उनको गले से लगा लिया।
जब गाड़ी चली तो पद्मसिंह ने विट्ठलदास से कहा– अब इस अभिनय का सबसे कठिन भाग आ गया।
विट्ठलदास– मैं नहीं समझा।
पद्मसिंह– क्या शान्ता से कुछ कहे-सुने बिना ही उसे आश्रम में पहुंचा दीजिएगा?
उसे पहले उसके लिए तैयार करना चाहिए।
विट्ठलदास– हां, यह आपने ठीक सोचा, तो जाकर कह दूं?
पद्मसिंह– जरा सोच तो लीजिए, क्या कहिएगा? अभी तो वह यह समझ रही है कि ससुराल जा रही हूं। वियोग के दुख में यह आशा उसे संभाले हुए है। लेकिन जब उसे हमारा कौशल ज्ञात हो जाएगा, तो उसे कितना दुख होगा? मुझे पछतावा हो रहा है कि मैंने पहले ही वे बातें क्यों न कह दीं?
विट्ठलदास– तो अब कहने में क्या बिगड़ा जाता है? मिर्जापुर में गाड़ी देर तक ठहरेगी, मैं जाकर उसे समझा दूंगा।
पद्मसिंह– मुझसे बड़ी भूल हुई।
विट्ठलदास– तो उस भूल पर पछताने से अगर काम चल जाए, तो जी भरकर पछता लीजिए।
पद्मसिंह– आपके पास पेंसिल हो तो लाइए, एक पत्र लिखकर सब समाचार प्रकट कर दूं।
विट्ठलदास– नहीं, तार दे दीजिए, यह और भी उत्तम होगा। आप विचित्र जीव हैं, सीधी-सी बात में भी इतना आगा-पीछा करने लगते हैं।
पद्मसिंह– समस्या ही ऐसी आ पड़ी है, मैं क्या करूं? एक बात मेरे ध्यान में आती है, मुगलसराय में देर तक रुकना पड़ेगा। बस, वहीं उसके पास जाकर सब वृत्तांत कह दूंगा।
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