उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
विट्ठलदास– यह आप बहुत दूर की कौड़ी लाए, इसीलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि कोई काम बिना भली-भांति सोचे नहीं करना चाहिए। आपकी बुद्धि ठिकाने पर पहुंचती है, लेकिन बहुत चक्कर खाकर। यही बात आपको पहले न सूझी।
शान्ता ड्योढ़े दरजे के जनाने कमरे में बैठी हुई थीं। वहां दो ईसाई लेडियां और बैठी थीं। वे शान्ता को देखकर अंग्रेजी में बातें करने लगीं।
‘मालूम होता है, यह कोई नवविवाहिता स्त्री है।’
‘हां, किसी ऊंचे कुल की है! ससुराल जा रही है।’
‘ऐसी रो रही है, मानों कोई ढकेले लिए जाता हो।’
‘पति की अभी तक सूरत न देखी होगी, प्रेम कैसे हो सकता है। भय से हृदय कांप रहा होगा।’
‘यह इनके यहां अत्यंत निकृष्ट रिवाज है। बेचारी कन्या एक अनजान घर में भेज दी जाती है, जहां कोई उसका अपना नहीं होता।’
‘यह सब पाशविक काल की प्रथा है, जब स्त्रियों को बलात् उठा ले जाते थे।’
‘क्यों बाईजी, (शान्ता से) ससुराल जा रही हो?’
शान्ता ने धीरे से सिर हिलाया।
‘तुम इतनी रूपवती हो, तुम्हारा पति भी तुम्हारे जोड़ का है?’
शान्ता ने गंभीरता से उत्तर दिया– पति की सुंदरता नहीं देखी जाती।
‘यदि वह काला-कलूटा हो तो?’
शान्ता ने गर्व से उत्तर दिया– हमारे लिए देवतुल्य है, चाहे कैसा ही हो।
‘अच्छा मान लो, तुम्हारे ही सामने दो मनुष्य लाए जाएं, एक रूपवान हो, दूसरा कुरूप, तो तुम किसे पसंद करोगी?’
शान्ता ने दृढ़ता से उत्तर दिया– जिसे हमारे माता-पिता पसंद करें।
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