उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
पद्मसिंह ने इस वाक्य को बड़ी मुश्किल से समाप्त किया। सुमन की उन्होंने जो प्रशंसा की, उस पर उन्हें स्वयं विश्वास नहीं था। मदनसिंह के संबंध में भी वे उससे बहुत अधिक कह गए, जो वह कहना न चाहते थे। उन्हें इस सरल-हृदय कन्या को इस भांति धोखा देते हुए मानसिक कष्ट होता था।
शान्ता रोते हुए पद्मसिंह के चरणों पर गिर पड़ी और लज्जा, नैराश्य तथा विषाद से भरे हुए ये शब्द उसके मुख से निकले– आपकी शरण में हूं, जो उचित समझिए, वह कीजिए।
शान्ता का हृदय बहुत हल्का हो गया। अब उसे अपने भविष्य के विषय में चिंता करने की आवश्यकता न रही, उसे कुछ दिनों के लिए अपना जीवन-मार्ग निश्चित मालूम होने लगा। वह इस समय उस मनुष्य के सदृश थी जो अपने झोंपड़े में आग लग जाने से इसलिए प्रसन्न हो कि कुछ देर के लिए वह अंधकार के भय से मुक्त हो जाएगा।
ग्यारह बजे ये तीनों प्राणी आश्रम में पहुंच गए। विट्ठलदास उतरे कि जाकर सुमनबाई को खबर दूं, पर वहां जाकर देखा, तो वह बुखार से बेसुध पड़ी थी। आश्रम की कई स्त्रियां उसकी सुश्रुषा में लगी हुई थीं। कोई पंखा झलती थी, कोई उसका सिर दबाती थी, कोई पैरों को मल रही थी। बीच-बीच में कराहने की ध्वनि सुनाई देती थी। विट्ठलदास ने घबराकर पूछा– डॉक्टर को बुलाया था? उत्तर मिला– हां, वह देखकर अभी गए हैं।
कई स्त्रियों ने शान्ता को गाड़ी से उतारा। शान्ता सुमन की चारपाई के पास खड़ी होकर बोली, ‘जीजी।’ सुमन ने आंखें न खोलीं। शान्ता मूर्तिवत् खड़ी अपनी बहन को करुण तथा सजल नेत्रों से देख रही थी। यही मेरी प्यारी बहन है, जिसके साथ मैं तीन-चार साल पहले खेलती थी। वह लंबे-लंबे काले केश कहां हैं? वह कुंदन-सा दमकता हुआ मुखचन्द्र कहां है? वह चंचल, सजीव मुस्कराती हुई आंखें कहां गई? वह कोमल, चपल गात, वह ईंगुर-सा भरा हुआ शरीर, वह अरुणवर्ण कपोल कहां लुप्त हो गए? यह सुमन है या उसका शव, अथवा उसकी निर्जीव मूर्ति? उस वर्णहीन मुख पर विरक्ति, संयम तथा आत्मत्याग की निर्मल, शांतिदायिनी ज्योति झलक रही थी। शान्ता का हृदय क्षमा और प्रेम से उमड़ उठा। उसने अन्य स्त्रियों को वहां से हट जाने का संकेत किया और तब वह रोती हुई सुमन के गले से लिपट गई और बोली– जीजी, आंखें खोलो, जी कैसा है? तुम्हारी शान्ति खड़ी है।
सुमन ने आंखें खोलीं और उन्मत्तों की भांति विस्मित नेत्रों से शान्ता की ओर देखकर बोली– कौन, शान्ति? तू हट जा, मुझे मत छू, मैं पापिन हूं, मैं अभागिन हूं, मैं भ्रष्टा हूं, तू देवी है, तू साध्वी है, मुझसे अपने को स्पर्श न होने दे। इस हृदय को वासनाओं ने, लालसाओं ने, दुष्कामनाओं ने, मलिन कर दिया है। तू अपने उज्जवल, स्वच्छ हृदय को इसके पास मत ला, यहां से भाग जा। वह मेरे सामने नरक का अग्निकुंड दहक रहा है, यम के दूत मुझे उस कुंड में झोंकने के लिए घसीटे लिए जाते हैं, तू यहां से भाग जा– यह कहते-कहते सुमन फिर से मूर्छित हो गई।
शान्ता सारी रात सुमन के पास बैठी पंखा झलती रही।
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