सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
1 पाठकों को प्रिय 24 पाठक हैं |
‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
दूध के कुल्हड़ पर वह हंस पडी। प्रेमवती भी मुस्कुरायी, परन्तु चन्द्रा रुष्ट हो गयी। बोली– बिना हंसी की हंसी हमें नहीं भाती। इसमें हंसने की क्या बात है?
सेवती– आओ, हम तुम मिलकर गायें।
चन्द्रा– कोयल और कौए का क्या साथ?
सेवती– क्रोध तो तुम्हारी नाक पर रहता है।
चन्द्रा– तो हमें क्यों छेड़ती हो? हमें गाना नहीं आता, तो कोई तुमसे निन्दा करने तो नहीं जाता।
‘कोई’ का संकेत राधाचरण की ओर था। चन्द्रा में चाहे और गुण न हों, परन्तु पति की सेवा वह तन-मन से करती थी। उसका तनिक भी सिर धमका कि इनका प्राण निकला। उनको घर आने में तनिक देर हुई कि वह व्याकुल होने लगी। जब से वे रुड़की चले गए, तब से चन्द्रा का हंसना बोलना सब छूट गया था। उसका विनोद उनके संग चला गया था। इन्हीं कारणों ने राधाचरण को स्त्री का वशीभूत बना दिया था। प्रेम, रूप-गुण, आदि सब त्रुटियों का पूरक है।
सेवती– निन्दा क्यों करेगा, ‘कोई’ तो तन-मन से तुम पर रीझा हुआ है।
चन्द्रा– इधर कई दिनों से चिट्ठी नहीं आयी।
सेवती– तीन-चार दिन हुए होंगे।
चन्द्रा– तुमसे तो हाथ-पैर जोड़ कर हार गयी। तुम लिखती ही नहीं।
सेवती– अब वे ही बातें प्रतिदिन कौन लिखे, कोई नई बात हो तो लिखने को जी भी चाहे।
चन्द्रा– आज विवाह के समाचार लिख देना। लाऊं कलम-दवात?
सेवती– परन्तु एक शर्त पर लिखूंगी।
चन्द्रा– बताओ।
सेवती– तुम्हें श्याम वाला गीत गाना पड़ेगा।
चन्द्रा– अच्छा गा दूंगी। हँसने ही को जी चाहता है न? हँस लेना।
|