उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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‘‘तो क्या आप अकेले ही विवाह करने जा रहे हैं?’’
‘‘अभी तो अकेला ही जा रहा हूँ। मुझे विवाह से चार-पाँच दिन पूर्व वहाँ पहुँच जाना चाहिये। बाराती लोग पीछे आयेंगे। मैंने उन सब के लिए सीट रिज़र्व करवा रखी हैं और टिकट उनको दे आया हूँ। अमृतसर स्टेशन पर मैं उनको ले लूँगा।’’
‘‘विवाह किस दिन का है?’’
‘‘मार्च की छह तारीख को रात के आठ बजे का मुहूर्त्त है।’’
‘‘तो मेरी बधाई अभी स्वीकार कर लीजिये।’’
‘‘पर मैं तो आपको विवाह पर पधारने का निमन्त्रण देने वाला हूँ।’’
‘‘अच्छी बात है, निमन्त्रण दे सकते हैं। उस अवस्था में मैं बधाई लिखकर भेज दूँगा। कदाचित् मैं अमृतसर पहुँच नहीं सकूँगा।’’
‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है? देखिये आज मार्च की पहली तारीख है। आपके लिए पाँच तारीख की सीट रिजर्व करवा लेता हूँ। धर्मराजजी महाराज! जब भाग्य से आपका पता पा गया हूँ तो फिर आपके बिना तो मेरा कार्य हो सकना सम्भव नहीं।’’
‘‘छोड़िये इस बात को। धर्मराज कहकर मेरी हँसी मत उड़ाइये।’’
‘‘हँसी नहीं महाराज! मैं किसी की भी हँसी उड़ाने वाले को बहुत बुरा मानता हूँ। देखिये, मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए। आपके आने से अवसर की शोभा द्विगुणित हो जायेगी।’’
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